Book Title: Dharmavir Sudarshan Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 8
________________ भूमिका मनुष्य-जीवन का आधार उसका सदाचार है । जैसे चमक के बिना मोती किसी काम का नहीं होता है, वैसे ही सदाचार के बिना मनुष्य-जीवन किसी काम का नहीं होता । मनुष्य अपने इस शरीर को सुरभित करने के लिए चन्दन एवं अगर आदि का प्रयोग करता है, अपने गले में सुरभित पुष्पों की माला पहनता है, किन्तु वह यह नहीं सोचता, कि जीवन सदाचार के बिना सुरभित नहीं बनाया जा सकता । इन बाहरी सुगन्धों से सदाचार की सुगन्ध ही श्रेष्ठ है । सदाचार जीवन का एक विशिष्ट गुण है, जिसके अभाव में एक पशु में और एक मनुष्य में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहता है । जीवन में धन का अभाव सहन किया जा सकता है, पूजा और प्रतिष्ठा का अभाव भी सहन किया जा सकता है, तथा दरिद्रता के भार को भी उठाया जा सकता है, किन्तु चरित्र-हीनता को तथा चरित्र-भ्रष्टता को किसी भी प्रकार सहन नहीं किया जा सकता । सच्चरित्रता मानव-जीवन का एक सर्वश्रेष्ठ गुण है, जिसके आधार पर मानव ने इस समग्र सृष्टि में अन्य प्राणियों की अपेक्षा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है । भारतीय तत्व-चिन्तक जब मानव-जीवन पर गम्भीरता के साथ विचार करते हैं, तब उनके विचार-मन्थन का सार यही निकलता है-"धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।" धर्म-हीन जीवन पशु-जीवन के बराबर है । धर्म-हीन मानव में और पशु में केवल आकृति का भेद रह जाता है । महर्षि व्यास ने एक दिन यह कहा था-"इस सृष्टि में सर्वाधिक बुद्धिमान और सर्वाधिक योग्य प्राणी मनुष्य ही है ।" मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ इस सृष्टि में अन्य कोई प्राणी नहीं हो सकता । मन में विचार उठता है, आखिर मनुष्य में ऐसी क्या विशेषता है, जिसके आधार पर मनुष्य के जीवन को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ कहा गया है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि मानव-जीवन की इस सर्वश्रेष्ठता का आधार उसका अपना चरित्र, उसका अपना सदाचार और उसका अपना संयम ही है । पाश्चात्य जगत के प्रसिद्ध दार्शनिक और विचारक जेम्स एलन ने कहा है“There is no substitute for beauty of mind and strength of character." FH og सौन्दर्य और चरित्र-बल की समानता करने वाली कोई दूसरी वस्तु नहीं है । तात्पर्य यह है, कि जब तक मनुष्य में चरित्र-शीलता उत्पन्न नहीं होगी, तब तक उसके जीवन में सुन्दरता, सुषमा और संस्कृति का प्रवेश नहीं हो सकेगा । तन उजला हो और मन काला हो, तो इस प्रकार के जीवन से मनुष्य को किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । शरीर यदि गौर वर्ण नहीं है, परन्तु मन में पवित्रता है, तब जीवन का कल्याण हो सकता है । मानव-संस्कृति का मुख्य सिद्धान्त यही है, (५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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