Book Title: Dharm ka Bij aur Uska Vikas
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ ६ या पूर्ण उदय देखा गया है या संभव हुआ है तो वह मनुष्य की आत्मामें ही । देश, काल, जाति, भाषा, वेश, आचार श्रादिकी सीमा में और सीमासे परे भी सच्चे धर्मकी वृत्ति अपना काम करती है । वही काम धर्म - बीजका पूर्ण विकास है । इसी विकासको लक्ष्यमें रखकर एक ऋषिने कहा कि 'कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः' अर्थात् जीना चाहते हो तो कर्तव्य कर्म करते ही करते जियो | कर्तव्य कर्मकी संक्षेप में व्याख्या यह है कि " तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यचित् धनम्' अर्थात् तुम भोग करो पर बिना त्यागके नहीं और किसीके सुख या सुखके साधनको लूटने की वृत्ति न रखो । सबका सारांश यही है कि जो सामुदायिक वृत्ति जन्मसिद्ध है उसका बुद्धि और विवेकपूर्वक अधिकाधिक ऐसा विकास किया जाए कि वह सबके हित में परिणत हो । यही धर्म - बीजका मानव-जाति में संभवित विकास है । ऊपर जो वस्तु संक्षेप में सूचित की गई है, उसीको हम दूसरे प्रकारसे अर्थात् तत्त्वचिन्तमके ऐतिहासिक विकास क्रमकी दृष्टिसे भी सोच सकते हैं । यह निर्विवाद तथ्य है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं से लेकर बड़ेसे बड़े पशु-पक्षी जैसे प्राणियोंतक में जो जिजीविषामूलक श्रमरत्वकी वृत्ति है, वह दैहिक या शारीरिक जीवन तक ही सीमित है । मनुष्येतर प्राणी सदा जीवित रहना चाहते हैं पर उनकी दृष्टि या चार वर्तमान दैहिक जीवन के आगे नहीं जाती । वे आगे या पीछे के जीवन के बारेमें कुछ सोच ही नहीं सकते । पर जहाँ मनुष्यत्वका प्रारंभ हुआ वहाँ से इस वृत्ति में सीमा-भेद हो जाता है । प्राथमिक मनुष्य दृष्टि च ! हे जैसी रही हो या अब भी है, तो भी मनुष्य जातिमें हजारों वर्षके पूर्व एक ऐसा समय आया जब उसने वर्तमान दैहिक जीवन से आगे दृष्टि दौड़ाई | मनुष्य वर्तमान दैहिक अमरत्वसे संतुष्ट न रहा, उसने मरणोत्तर जिजीविषामूलक श्रमरत्व की भावनाको चित्तमें स्थान दिया और उसीको सिद्ध करने के लिए वह नाना प्रकार के उपायोंका अनुष्ठान करने लगा । इसीमेंसे बलिदान, यज्ञ, व्रतनियम, तप, ध्यान, ईश्वर भक्ति, तीर्थ सेवन, दान आदि विविध धर्म मार्गों का निर्माण तथा विकास हुआ । यहाँ हमें समझना चाहिए कि मनुष्यकी दृष्टि वर्तमान जन्म से आगे भी सदा जीवित रहने की इच्छा से किसी न किसी उपायका श्रय लेती रही है । पर उन उपायोंमें ऐसा कोई नहीं है जो सामुदायिक वृत्ति या सामुदायिक भावनाके सिवाय पूर्ण सिद्ध हो सके । यज्ञ और दानको तो बात ही क्या, एकांत सापेक्ष माना जानेवाला ध्यानमार्ग भी आखिरको किसी Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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