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धर्मका बीज और उसका विकास
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लॉर्ड मोर्ले ने कहा है कि धर्मकी लगभग १०००० व्याख्याएँ की गई हैं, फिर भी उनमें सब धर्मोका समावेश नहीं होता । आखिर बौद्ध, जैन आदि धर्म उन व्याख्याओं के बाहर ही रह जाते हैं । विचार करनेसे जान पड़ता है कि सभी व्याख्याकार किसी न किसी पंथका अवलम्बन करके व्याख्या करते हैं । जो व्याख्याकार कुरान और मुहम्मदको व्याख्या में समावेश करना चाहेगा उसकी व्याख्या कितनी ही उदार क्यों न हो, अन्य धर्म-पंथ उससे बाहर रह जाएँगे । जो व्याख्याकार बाइबिल और क्राइस्टका समावेश करना चाहेगा, या जो वेद, पुराण आदिको शामिल करेगा उसकी व्याख्याका भी यही हाल होगा । सेश्वरवादी निरीश्वर धर्मका समावेश नहीं कर सकता और निरीश्वरवादी सेश्वर धर्मका । ऐसी दशा में सारी व्याख्याएँ अधूरी साबित हों, तो कोई अचरज नहीं | तब प्रश्न यह है कि क्या शब्दों के द्वारा धर्मका स्वरूप पहचानना संभव ही नहीं ? इसका उत्तर 'हाँ' और 'ना' दोनों में है । 'ना' इस अर्थ में कि जीवन में धर्मका स्वतः उदय हुए बिना शब्दोंके द्वारा उसका स्पष्ट भान होना संभव नहीं और 'हाँ' इस अर्थ में कि शब्दोंसे प्रतीति श्रवश्य होगी, पर वह अनुभव जैसी स्पष्ट नहीं हो सकती । उसका स्थान अनुभवकी अपेक्षा गौण हो रहेगा अतएव, यहाँ धर्मके स्वरूपके बारेमें जो कुछ कहना है वह किसी पान्थिक दृष्टिका अवलंबन करके नहीं कहा जाएगा जिससे अन्य धर्मपंथ का समावेश ही न हो सके । यहाँ जो कुछ कहा जाएगा वह प्रत्येक समझदार व्यक्तिके अनुभव आनेवाली हकीकतके श्राधारपर ही कहा जाएगा जिससे वह हर एक पंथकी परिभाषामें घट सके और किसीका बहिर्भाव न हो । जब वर्णन शाब्दिक है तब यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि वह अनुभव जैसा स्पष्ट भी होगा ।
पूर्व -मीमांसा में 'अथातो धर्मजिज्ञासा' सूत्रसे धर्मके स्वरूपका विचार प्रारंभ किया है कि धर्मका स्वरूप क्या है ? तो उत्तर-मीमांसा में 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' सूत्रसे जगत् के मूलतत्त्व के स्वरूपका विचार प्रारम्भ किया है । पहले में श्राचारका और दूसरेमें तत्त्वका विचार प्रस्तुत है । इसी तरह श्राधुनिक प्रश्न यह है कि धर्मका बीज क्या है, और उसका प्रारंभिक स्वरूप क्या है ? हम सभी अनुभव करते हैं कि हममें जिजीविषा है । जिजीविषा केवल मनुष्य,
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पशु-पक्षी तक ही सीमित नहीं है, वह तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म कीट, पतंग और बेक्टेरिया जैसे जंतुओंमें भी है। जिजीविषाके गर्भ में ही सुखकी शात, अज्ञात अभिलाषा अनिवार्यरूपसे निहित है। जहाँ सुखकी अभिलाषा है, वहाँ प्रतिकूल वेदना या दुःखसे बचनेकी वृत्ति भी अवश्य रहती है। इस जिजीविषा, सुखाभिलाषा और दुःखके प्रतिकारकी इच्छामें ही धर्मका बीज निहित है ।।
कोई छोटा या बड़ा प्राणधारी अकेले अपने आपमें जीना चाहे तो जी नहीं सकता और वैसा जीवन बिता भी नहीं सकता। वह अपने छोटे-बड़े सजातीय दलका अाश्रय लिये बिना चैन नहीं पाता। जैसे वह अपने दलमें रहकर उसके आश्रयसे सुखानुभव करता है वैसे ही यथावसर अपने दलकी अन्य व्यक्तियोको यथासंभव मदद देकर भी सुखानुभव करता है। यह वस्तुस्थिति चींटी, भौंरे और दीमक जैसे क्षुद्र जन्तुओंके वैज्ञानिक अन्वेषकोंने विस्तारसे दरसाई है। इतने दूर न जानेवाले सामान्य निरीक्षक भी पक्षियों
और बन्दर जैसे प्राणियों में देख सकते हैं कि तोता, मैना, कौश्रा आदि पक्षी केवल अपनी संततिके ही नहीं बल्कि अपने सजातीय दलके संकट के समय भी उसके निवारणार्थ मरणांत प्रयत्न करते हैं और अपने दलका श्राश्रय किस तरह पसंद करते हैं। आप किसी बन्दरके बच्चे को पकड़िए, फिर देखिए कि केवल उसकी माँ ही नहीं, उस दल के छोटे-बड़े सभी बन्दर उसे बचानेका प्रयत्न करते हैं। इसी तरह पकड़ा जानेवाला बच्चा केवल अपनी माँकी ही नहीं अन्य बन्दरोंकी ओर भी बचावके लिए देखता है । पशु-पक्षियों की यह रोजमर्राकी घटना है तो अतिपरिचित और बहुत मामूली-सी, पर इसमें एक सत्य सूक्ष्मरूपसे निहित है। ___ वह सत्य यह है कि किसी प्राणधारीकी जिजीविषा उसके जीवनसे अलग नहीं हो सकती और जिजीविषाकी तृप्ति तभी हो सकती है, जब प्राणधारी अपने छोटे-बड़े दल में रहकर उसकी मदद लें और मदद करें। जिजीविषाके साथ अनिवार्य रूपसे संकलित इस सजातीय दलसे मदद लेनेके भाव में ही धर्मका वीज निहित है। अगर समुदायमें रहे बिना और उससे मदद लिए बिना जीवनधारी प्राणीकी जीवनेच्छा तृप्त होती, तो धर्मका प्रादुर्भाव संभव ही न था। इस दृष्टिसे देखनेपर कोई सन्देह नहीं रहता कि धर्मका बीज हमारी जिजीविषामें है और वह जीवन-विकासकी प्राथमिकसे प्राथमिक स्थिति में भी मौजूद है, चाहे वह अज्ञान या अव्यक्त अवस्था ही क्यों न हो। ___ हरिण जैसे कोमल स्वभावके ही नहीं बल्कि जंगली भैंसों तथा गैण्डों जैसे कठोर स्वभावके पशुओंमें भी देखा जाता है कि वे सब अपना-अपना दल
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बाँधकर रहते और जीते हैं। इसे हम चाहे आनुवंशिक संस्कार मानें चाहे. पूर्वजन्मोपार्जित, पर विकसित मनुष्य-जातिमें भी यह सामुदायिक वृत्ति अनिवार्य रूपसे देखी जाती है। जब पुरातन मनुष्य जंगली अवस्थामें था तब
और जब आजका मनुष्य सभ्य गिना जाता है तब भी, यह सामुदायिक वृत्ति एक सी श्रखण्ड देखी जाती है । हाँ, इतना फर्क अवश्य है कि जीवन विकासकी अमुक भूमिका तक सामुदायिक वृत्ति उतनी समान नहीं होती जितनी कि विकसित बुद्धिशील गिने जानेवाले मनुष्यमें है। हम अभान या अस्पष्ट भानवाली सामुदायिक वृत्तिको प्रावाहिक या औधिक वृत्ति कह सकते हैं। पर यही वृत्ति धर्म-बीजका आश्रय है, इसमें कोई सन्देह नहीं । इस धर्म-बीजका सामान्य और संक्षिप्त स्वरूप यही है कि वैयक्तिक और सामुदायिक जीवनके लिए जो अनुकूल हो उसे करना और जो प्रतिकूल हो उसे टालना या उससे बचना। ____ जब हम विकसित मानव जातिके इतिहास-पटपर पाते हैं तब देखते हैं कि केवल माता-पिताके सहारे बढ़ने और पलनेवाला तथा कुटुम्बके वातावरणसे पुष्ट होनेवाला बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है और उसकी समझ जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उसका ममत्व और प्रात्मीय भाव माता-पिता तथा कुटुम्ब के वर्तुलसे और भी आगे विस्तृत होता जाता है। वह शुरूमें अपने छोटे गाँवको ही देश मान लेता है। फिर क्रमशः अपने राष्ट्रको देश मानता है और किसी-किसकी समझ इतनी अधिक व्यापक होती है कि उसका ममत्व या श्रात्मीयभाव किसी एक राष्ट्र या जातिकी सीमामें बद्ध न रहकर समग्र मानव जाति ही नहीं बल्कि समग्र प्राणी-वर्गतक फैल जाता है । ममत्व या श्रात्मीय-भावका एक नाम मोह है और दूसरा प्रेम। जितने परिमाणमें ममत्व सीमाबद्ध अधिक, उतने परिमाणमें वह मोह है और जितने परिमाणमें निस्सीम या सीमामुक्त है उतने परिमाणमें वह प्रेम है । धर्मका तत्त्व तो मोहमें भी है और प्रेममें भी। श्रन्तर इतना ही है कि मोहकी दशामें विद्यमान धर्मका बीज तो कभी-कभी विकृत होकर अधर्मका रूप धारण कर लेता है जबकि प्रेम की दशामें वह धर्मके शुद्ध स्वरूपको ही प्रकट करता है ।।
मनुष्य-जातिमें ऐसी विकास शक्ति है कि वह प्रेम-धर्मकी श्रोर प्रगति कर सकती है। उसका यह विकास-बल एक ऐसी वस्तु है जो कभी-कभी विकृत होकर उसे यहाँ तक उलटी दिशामें खींचता है कि वह पशुसे भी निकृष्ट मालूम होती है। यही कारण है कि मानव-जातिमें देवासुर-वृत्तिका द्वन्द्व देखा जाता है। तो भी एक बात निश्चित है कि जब कभी धर्मवृत्तिका अधिकसे अधिक
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या पूर्ण उदय देखा गया है या संभव हुआ है तो वह मनुष्य की आत्मामें ही ।
देश, काल, जाति, भाषा, वेश, आचार श्रादिकी सीमा में और सीमासे परे भी सच्चे धर्मकी वृत्ति अपना काम करती है । वही काम धर्म - बीजका पूर्ण विकास है । इसी विकासको लक्ष्यमें रखकर एक ऋषिने कहा कि 'कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः' अर्थात् जीना चाहते हो तो कर्तव्य कर्म करते ही करते जियो | कर्तव्य कर्मकी संक्षेप में व्याख्या यह है कि " तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यचित् धनम्' अर्थात् तुम भोग करो पर बिना त्यागके नहीं और किसीके सुख या सुखके साधनको लूटने की वृत्ति न रखो । सबका सारांश यही है कि जो सामुदायिक वृत्ति जन्मसिद्ध है उसका बुद्धि और विवेकपूर्वक अधिकाधिक ऐसा विकास किया जाए कि वह सबके हित में परिणत हो । यही धर्म - बीजका मानव-जाति में संभवित विकास है ।
ऊपर जो वस्तु संक्षेप में सूचित की गई है, उसीको हम दूसरे प्रकारसे अर्थात् तत्त्वचिन्तमके ऐतिहासिक विकास क्रमकी दृष्टिसे भी सोच सकते हैं । यह निर्विवाद तथ्य है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं से लेकर बड़ेसे बड़े पशु-पक्षी जैसे प्राणियोंतक में जो जिजीविषामूलक श्रमरत्वकी वृत्ति है, वह दैहिक या शारीरिक जीवन तक ही सीमित है । मनुष्येतर प्राणी सदा जीवित रहना चाहते हैं पर उनकी दृष्टि या चार वर्तमान दैहिक जीवन के आगे नहीं जाती । वे आगे या पीछे के जीवन के बारेमें कुछ सोच ही नहीं सकते । पर जहाँ मनुष्यत्वका प्रारंभ हुआ वहाँ से इस वृत्ति में सीमा-भेद हो जाता है । प्राथमिक मनुष्य दृष्टि च ! हे जैसी रही हो या अब भी है, तो भी मनुष्य जातिमें हजारों वर्षके पूर्व एक ऐसा समय आया जब उसने वर्तमान दैहिक जीवन से आगे दृष्टि दौड़ाई | मनुष्य वर्तमान दैहिक अमरत्वसे संतुष्ट न रहा, उसने मरणोत्तर जिजीविषामूलक श्रमरत्व की भावनाको चित्तमें स्थान दिया और उसीको सिद्ध करने के लिए वह नाना प्रकार के उपायोंका अनुष्ठान करने लगा । इसीमेंसे बलिदान, यज्ञ, व्रतनियम, तप, ध्यान, ईश्वर भक्ति, तीर्थ सेवन, दान आदि विविध धर्म मार्गों का निर्माण तथा विकास हुआ । यहाँ हमें समझना चाहिए कि मनुष्यकी दृष्टि वर्तमान जन्म से आगे भी सदा जीवित रहने की इच्छा से किसी न किसी उपायका श्रय लेती रही है । पर उन उपायोंमें ऐसा कोई नहीं है जो सामुदायिक वृत्ति या सामुदायिक भावनाके सिवाय पूर्ण सिद्ध हो सके । यज्ञ और दानको तो बात ही क्या, एकांत सापेक्ष माना जानेवाला ध्यानमार्ग भी आखिरको किसी
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अन्यकी मदद के बिना नहीं निभ सकता या ध्यान-सिद्ध व्यक्ति किसी अन्यमें अपने एकत्र किये हुए संस्कार डाले बिना तृप्त भी नहीं हो सकता। केवल दैहिक जीवनमें दैहिक सामुदायिक वृत्ति अावश्यक है, तो मानसिक जीवन में भी दैहिकके अलावा मानसिक सामुदायिक वृत्ति अपेक्षित है ।
जब मनुष्यकी दृष्टि पारलौकिक स्वर्गीय दीर्घ जीवनसे तृप्त न हुई और उसने एक कदम आगे सोचा कि ऐसा भी जीवन है जो विदेह अमरत्व-पूर्ण है, तो उसने इस अमरत्वको सिद्धिके लिए भी प्रयत्न शुरू किया । पुराने उपायों के अतिरिक्त नये उपाय भी उसने सोचे । सबका ध्येय एकमात्र अशरीर श्रमरत्य रहा । मनुष्य अभी तक मुख्यतया वयक्तिक अमरत्वके बारेमें सोचता था, पर उस समय भी उसकी दृष्टि सामुदायिक वृत्तिसे मुक्त न थी । जो मुक्त होना चाहता था, या मुक्त हुआ माना जाता था, वह भी अपनी श्रेणी में अन्य मुक्तोंकी वृद्धि के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था । अर्थात् मुक्त व्यक्ति भी अपने जैसे मुक्तोका समुदाय निर्माण करनेकी वृत्तिसे मुक्त न था । इसीलिए मुक्त व्यक्ति अपना सारा जीवन अन्योंको मुक्त बनानेकी ओर लगा देता था । यही वृत्ति सामुदायिक है और इसीमें महायानकी या सर्व-मुक्तिकी भावना निहित है । यही कारण है कि धागे माकर मुक्ति का अर्थ यह होने लगा कि जब तक एक भी प्राणी दुःखित हो या वासनाबर हो, तब तक किसी अकेलेकी मुक्तिका कोई पूरा अर्थ नहीं है । यहाँ हमै इतना ही देखना है कि वर्तमान दैहिक जिजीविषासे श्रागे अमरत्व की भावनाने कितना ही प्रयाण क्यों न किया हो, पर वैयक्तिक जीवनका परस्पर संबन्ध कभी विच्छिन्न नहीं होता।
अब तत्त्वचिन्तनके इतिहासमें वैयक्तिक जीवन-भेदके स्थानमें या उसके साथ-साथ अखण्ड जीवनकी या अखण्ड ब्रह्म की भावना स्थान पाती है। ऐसा माना जाने लगा कि वैयक्तिक जीवन भिन्न भिन्न भले ही दिखाई दे, तो भी वास्तव में कीट-पतंगसे मनुष्य तक सब जीवनधारियोंमें और निर्जीव मानीजानेवाली सृष्टि में भी एक ही जीवन व्यक्त-अव्यक्त रूपसे विद्यमान है, जो केवल ब्रह्म कहलाता है। इस दृष्टिमें तो वास्तव में कोई एक व्यक्ति इतर व्यक्तियोंसे भिन्न है ही नहीं । इसलिए इसमें वैयक्तिक अमरत्व सामुदायिक अमरत्व में घुलमिल जाता है। सारांश यह है कि हम वैयक्तिक जीवन-भेद की दृष्टिसे या अखण्ड ब्रह्म-जीवनकी दृष्टिसे विचार करें या व्यवहारमें देखें, तो एक ही बात नजरमें अाती है कि वैयक्तिक जीवनमें सामुदायिक वृत्ति अनिवार्यरूपसे निहित है और उसी वृत्तिका विकास मनुष्य-जातिमें अधिकसे अधिक संभवित है और तदनुसार ही उसके धर्ममार्गोंका विकास होता रहता है ।
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________________ उन्हीं सब मागौंका संक्षेपमें प्रतिपादन करनेवाला वह ऋषिवचन है जो पहले निर्दिष्ट किया गया है कि कर्तव्य कर्म करते ही करते जीओ और अपनेमेसे त्याग करो, दूसरेका हरण न करो। यह कथन सामुदायिक जीवन-शुद्धि का या धर्मके पूर्ण विकासका सूचक है जो मनुष्य-जातिमें ही विवेक और प्रयत्नसे कभी न कभी संभवित है। हमने मानव-जातिमें दो प्रकारसे धर्म-बीजका विकास देखा / पहले प्रकारमें धर्म-बीजके विकासके आधाररूपसे मानव जातिका विकसित जीवन या विकसित चैतन्यस्पन्दन विवक्षित है और दूसरे प्रकारमें देहात्मभावनासे आगे बढ़कर पुनर्जन्मसे भी मुक्त होनेकी भावना विवक्षित है। चाहे जिस प्रकारसे विचार किया जाए, विकासका पूर्ण मर्म ऊपर कहे हुए ऋषिवचनमें ही है, जो वैयक्तिक और सामाजिक श्रेयकी योग्य दिशा बतलाता है / __ प्रस्तुत पुस्तकमें धर्म और समाजविषयक जो, जो लेख, व्याख्यान आदि संग्रह किये गए हैं, उनके पीछे मेरी धर्मविषयक दृष्टि वही रही है जो उक्त ऋषिवचनके द्वारा प्रकट होती है। तो भी इसके कुछ लेख, ऐसे मालूम पड़ सकते हैं कि एक वर्ग विशेषको लक्ष्यमें रखकर ही लिखे गए हो / वात यह है कि जिस समय जैसा वाचक-वर्ग लक्ष्यमें रहा, उस समय उसी वर्गके अधिकारकी दृष्टिसे विचार प्रकट किए गए हैं। यही कारण है कि कई लेखोंमें जैनपरंपराका संबन्ध विशेष दिखाई देता है और कई विचारोंमें दार्शनिक शब्दोंका उपयोग भी किया गया है। परन्तु मैंने यहाँ जो अपनी धर्मविषयक दृष्टि प्रकट की है यदि उसीके प्रकाशमें इन लेखों को पढ़ा जाएगा तो पाठक यह अच्छी तरह समझ जाएँगे कि धर्म और समाजके पारस्परिक संबन्धके बारे में मैं क्या सोचता हूँ / यों तो एक ही वस्तु देश-कालके भेदसे नाना प्रकारसे कही जाती है / ई० 1651] ['धर्म और समाजसे