Book Title: Dharm ka Bij aur Uska Vikas
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ अन्यकी मदद के बिना नहीं निभ सकता या ध्यान-सिद्ध व्यक्ति किसी अन्यमें अपने एकत्र किये हुए संस्कार डाले बिना तृप्त भी नहीं हो सकता। केवल दैहिक जीवनमें दैहिक सामुदायिक वृत्ति अावश्यक है, तो मानसिक जीवन में भी दैहिकके अलावा मानसिक सामुदायिक वृत्ति अपेक्षित है । जब मनुष्यकी दृष्टि पारलौकिक स्वर्गीय दीर्घ जीवनसे तृप्त न हुई और उसने एक कदम आगे सोचा कि ऐसा भी जीवन है जो विदेह अमरत्व-पूर्ण है, तो उसने इस अमरत्वको सिद्धिके लिए भी प्रयत्न शुरू किया । पुराने उपायों के अतिरिक्त नये उपाय भी उसने सोचे । सबका ध्येय एकमात्र अशरीर श्रमरत्य रहा । मनुष्य अभी तक मुख्यतया वयक्तिक अमरत्वके बारेमें सोचता था, पर उस समय भी उसकी दृष्टि सामुदायिक वृत्तिसे मुक्त न थी । जो मुक्त होना चाहता था, या मुक्त हुआ माना जाता था, वह भी अपनी श्रेणी में अन्य मुक्तोंकी वृद्धि के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था । अर्थात् मुक्त व्यक्ति भी अपने जैसे मुक्तोका समुदाय निर्माण करनेकी वृत्तिसे मुक्त न था । इसीलिए मुक्त व्यक्ति अपना सारा जीवन अन्योंको मुक्त बनानेकी ओर लगा देता था । यही वृत्ति सामुदायिक है और इसीमें महायानकी या सर्व-मुक्तिकी भावना निहित है । यही कारण है कि धागे माकर मुक्ति का अर्थ यह होने लगा कि जब तक एक भी प्राणी दुःखित हो या वासनाबर हो, तब तक किसी अकेलेकी मुक्तिका कोई पूरा अर्थ नहीं है । यहाँ हमै इतना ही देखना है कि वर्तमान दैहिक जिजीविषासे श्रागे अमरत्व की भावनाने कितना ही प्रयाण क्यों न किया हो, पर वैयक्तिक जीवनका परस्पर संबन्ध कभी विच्छिन्न नहीं होता। अब तत्त्वचिन्तनके इतिहासमें वैयक्तिक जीवन-भेदके स्थानमें या उसके साथ-साथ अखण्ड जीवनकी या अखण्ड ब्रह्म की भावना स्थान पाती है। ऐसा माना जाने लगा कि वैयक्तिक जीवन भिन्न भिन्न भले ही दिखाई दे, तो भी वास्तव में कीट-पतंगसे मनुष्य तक सब जीवनधारियोंमें और निर्जीव मानीजानेवाली सृष्टि में भी एक ही जीवन व्यक्त-अव्यक्त रूपसे विद्यमान है, जो केवल ब्रह्म कहलाता है। इस दृष्टिमें तो वास्तव में कोई एक व्यक्ति इतर व्यक्तियोंसे भिन्न है ही नहीं । इसलिए इसमें वैयक्तिक अमरत्व सामुदायिक अमरत्व में घुलमिल जाता है। सारांश यह है कि हम वैयक्तिक जीवन-भेद की दृष्टिसे या अखण्ड ब्रह्म-जीवनकी दृष्टिसे विचार करें या व्यवहारमें देखें, तो एक ही बात नजरमें अाती है कि वैयक्तिक जीवनमें सामुदायिक वृत्ति अनिवार्यरूपसे निहित है और उसी वृत्तिका विकास मनुष्य-जातिमें अधिकसे अधिक संभवित है और तदनुसार ही उसके धर्ममार्गोंका विकास होता रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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