Book Title: Dharm aur Darshan ke Shektra me Haribhadra ki Sahishnuta Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 9
________________ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२१ शरणागति को यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुंचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वरकर्तृत्ववाद की अवधारणा अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण प्रात्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भी है और 'कर्ता' भी है। इस प्रकार ईश्वर कतत्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है। हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं किन्तु वे प्रकृति को जैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते हैं। वे लिखते है कि 'सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्मप्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं। शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपदेश पदार्थ के प्रति हमारी प्रासक्ति के निवारण के लिए ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति प्रासक्ति गहरी नहीं होती। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त करने के लिए ही है। यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी । इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निःसारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस १. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पृ० ५५ । २. ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्ध बुद्धतः ।। ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः ।। तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥ -शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०३-२०५ ३. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः। स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ -वही, २०७ ४. प्रकृति चापि सन्न्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥ एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि। - कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः।-वही २३२-२३७ ५. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ।। विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥–शास्र० ४६४-४६५ ॥ धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrancoraPage Navigation
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