Book Title: Dharm aur Darshan ke Shektra me Haribhadra ki Sahishnuta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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चतुर्थखण्ड / १२६ आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत ही महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यही है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनात्रों का कितना शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है ।
मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण
हरिभद्र ग्रन्य धर्माचायों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
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नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥ अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धान्तविशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्तिविशेष की सेवा करने से भी मुक्ति सम्भव है । मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म सम्प्रदाय अथवा विशेष वेषभूषा नहीं है । वस्तुतः जो व्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा वही मुक्त होगा । उनके शब्दों में-
सेयंबरो य आसंवरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो ॥
अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो ।
साधना के क्षेत्र में उपास्य का नामभेद महत्त्वपूर्ण नहीं
हरिभद्र की दृष्टि में धाराध्य के नामभेदों को लेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है । लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैं
यस्य निखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते ।
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ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय उसमें भेद नहीं वस्तुतः सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णत्रज्ञ तथा परमकारुणिक माना गया है। किन्तु हमारी दृष्टि उस परम तत्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है । योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथागतः । शब्दस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः ॥
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