Book Title: Dharm aur Darshan ke Shektra me Haribhadra ki Sahishnuta Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता ] डॉ० सागरमल जैन भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने अपनी लेखनी से विपुल मात्रा में मौलिक एवं टीका साहित्य का सृजन किया है । अनुश्रुति है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वर्तमान में उनके द्वारा रचित लगभग ८४ ग्रन्थों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है । उन्होंने दर्शन, धर्म-साधना, योग-साधना, धार्मिक विधि-विधान, आचार, उपदेश कथाग्रन्थ श्रादि विविध विधानों पर ग्रन्थों की रचना की है । उनका टीका साहित्य भी विपुल है। हरिभद्र उस युग के विचारक हैं, ये जब भारतीय चिन्तन एवं दर्शन के क्षेत्र में वाक् छल और खण्डन- मण्डन की प्रवृत्ति प्रमुख बन गयी थी । प्रत्येक दर्शन स्वपक्ष के मण्डन प्रौर परपक्ष के खण्डन में अपना बुद्धि-कौशल दिखला रहा था । मात्र यही नहीं, धर्मों और दर्शनों में पारस्परिक विद्वेष और घृणा की भावना भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी । स्वयं हरिभद्र के दो शिष्यों को भी इस विद्वेष भावना का शिकार होकर अपने जीवन की बलि देनी पड़ी थी। उस युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के प्रदेयों का और उनकी महानता का सम्यक् मूल्यांकन किया जा सकता है। हरिभद्र की महानता तो इसी में है कि उन्होंने शुष्क वाक्- जाल और घृणा एवं विद्वेष के इस विषम परिवेश में समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया । यद्यपि समन्वयशीलता, उदारता और समभाव के गुण हरिभद्र को जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि से विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने इन गुणों को जिस शालीनता के साथ अपनी कृतियों में एवं जीवन में श्रात्मसात् किया है, वैसा उदाहरण स्वयं जैन परम्परा में भी विरल है । प्रस्तुत निबन्ध में हम उनकी इन्हीं विशेषताओं पर किञ्चित् विस्तार के साथ चर्चा करेंगे । धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता का रूप क्या है ? यह समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुनों में विभाजित कर रहे हैं (१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण । (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मो एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति । (३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं के सार तत्त्व और मूल उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न | Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.orgPage Navigation
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