Book Title: Dharm aur Darshan ke Shektra me Haribhadra ki Sahishnuta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 12
________________ चतुर्थ खण्ड / १२४ मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए प्राग्रही वत निनीष ति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।। आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का प्रयोग भी वहीं करता है जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है उसे स्वीकार करता है । इस प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि या अपने विरोधी की मान्यता के खण्डन के लिए न करके सत्य की गवेषणा के लिए करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ ताकिक हैं। कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्मसाधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया गया है। हरिभद्र भी धर्मसाधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हैं, किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न ज्ञान को कुतर्क प्राश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। वे कहते है कि जिन पर मेरी श्रद्धा का कारण राग भाव नहीं है अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे श्रद्धा के साथ बुद्धि जोड़ते हैं। किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है । वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुतः एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाली है। वह ज्ञान का अभिमान उत्पन्न करने के कारण भाव-शत्रु है। इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क के वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए।' वस्तुतः वे सम्यग्ज्ञान और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं । तर्क केवल विकल्पों का सृजन करता है अतः उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक विकास में बाधक ही है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने धर्म के दो विभाग किये हैं-एक संज्ञान-योग और दूसरा पुण्य लक्षण । ज्ञानयोग वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह ताकिक ज्ञान से भिन्न है । हरिभद्र अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए तर्क एवं युक्ति को आवश्यक मानते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में तर्क या युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए न कि खण्डन-मण्डनात्मक। खण्डन-मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में की है। इसी प्रकार धामिक प्राचार को भी वे शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक रखना चाहते हैं । यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्ड परक ग्रन्थ लिखे हैं। किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने १. योगदृष्टिसमुच्चय ८७ एवं ८८ । २. शास्त्रवासिमुच्चय, २० । ३. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६-१०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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