Book Title: Devnagari Lipi aur Uska Vaigyanik Mahattva Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 5
________________ |श्री संतिकरं स्तोत्र का अद्भुत प्रभाव देखने को मिला है | श्री साराभाई मणिलाल नवाब द्वारा प्रकाशित " महाप्रभाविक नवस्मरण " ग्रंथ में एक संतिकरं कल्प है । उसके अनुसार विधि करने पर उसका अनुभव हो सकता है । 12 ___ इस संतिकरं स्तोत्र की रचना श्री मुनिसुंदरसूरिजी महाराज नामक जैनाचार्य ने की है । इस स्तोत्र में श्रीशांतिनाथ परमात्मा की स्तुति की गई है । जैन परंपरा के अनुसार इस वर्तमान अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस | तीर्थकरों में से श्री शांतिनाथ सोलहवें तीर्थंकर हैं | कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी के त्रिष्टिशलाकापुरुष चरित्र के अनुसार श्री शांतिनाथ प्रभु उनकी माता श्रीअचिरादेवी के गर्भ में थे उस वख्त हस्तिनापुर नगर में |किसी भी कारण से मरकी-महामारी भारी उपद्रव हुआ था । उस समय ज्ञानी गुरु भगवंत की सूचना अनुसार श्री अचिरा माता के स्नात्र-अभिषेक | के जल का समग्र नगर में छंटकाव किया गया और उससे समग्र नगर में से रोग दूर हो गया था ।" प्रथम दृष्टि से आज के विज्ञान युग में यह असंभव - अशक्य माना जाय किन्तु तटस्थ अनुसंधान की दृष्टि से इस घटना का मूल्यांकन किया जाय तो इसमें कोई आश्चर्यजनक नहीं है । इस स्तोत्र के रचयिता आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरिजी महाराज भी | मंत्रशास्त्र के महान ज्ञाता व सत्त्वशाली महापुरुष थे । उन्होंने सूरिमंत्र की संपूर्ण आराधना विधिपूर्वक 24 बार की थी । जो सामान्यतः कोई भी आचार्य केवल एक या दो बार करते हैं । ___ इस स्तोत्र के विधिपूर्वक जाप से कैन्सर जैसे महाव्याधि मे उसकी गांठें अदृश्य हो पायी हैं । । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी संगीत के साधन द्वारा उत्पन्न संगीत के सुरों के बजाय संगीतकार द्वारा ही अपने मुख से जो सुर उत्पन्न |किया जाता है वह ज्यादा शक्तिशाली होता है और वह दर्दी पर ज्यादा असर पैदा करता है । यह बात वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा स्पष्ट होती है |"जो तार्किक रीत से भी संपूर्ण सत्य है क्योकि संगीत के साधन द्वारा उत्पन्न सुरों में एक ही प्रकार के सुर में भिन्न भिन्न बहुत से प्रकार के अक्षर, शब्द की ध्वनि समाविष्ट हो जाती है । जबकि संगीतकार मनुष्य द्वारा मुख से ही जिस सुर का उच्चारण किया जाता है उस वख्त वह 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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