Book Title: Deval Dharm Sutra me Aeshwaryo ka Vivaran Author(s): Lallan Gopal Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 2
________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण ९९ 1 लक्ष्मीधर ने देवल के अतिरिक्त केवल याज्ञवल्क्य से ही उद्धरण दिया है । ये श्लोक संख्या में दो हैं और याज्ञवल्क्यस्मृति में प्राप्य हैं ( याज्ञवल्क्य, ३।२०२-३ ) । इस प्रकार मोक्षकाण्ड का यह पूरा अध्याय एक प्रकार से देवल पर ही आधारित है । लक्ष्मीधर ने कृत्यकल्पतरु में देवल से अनेक अंश उद्धृत किये हैं, जिनमें से कुछ बहुत ही लम्बे हैं । ये उद्धरण किसी एक काण्ड तक सीमित नहीं हैं । ये सभी काण्डों में बिखरे हैं और धर्मसूत्र की विषय-वस्तु की परिधि में आने वाले अनेक विषयों से सम्बन्धित हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि लक्ष्मीधर को देवल का धर्मसूत्र अपनी सम्पूर्णता में उपलब्ध था । मित्र मिश्र दूसरे निबन्धकार हैं, जिन्होंने ऐश्वर्यों पर देवल के इस अंश को उद्धृत किया है । मित्रमिश्र ने ओर्छा नरेश वीरसिंह (१६०५-१६२७ ई०) के प्रपौत्र का उल्लेख किया है, अतः उनकी सक्रिय रचनात्मकता का काल सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध रहा होगा ।' प्रस्तुत उद्धरण उनके निबन्ध ग्रन्थ वीरमित्रोदय के अन्तिम खण्ड मोक्षप्रकाश में मिलता है । मोक्षप्रकाश अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है । के० वी० आर० ऐयाङ्गर ने इसकी एकमेव उपलब्ध हस्तलिखित प्रति का उपयोग कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड का सम्पादन करते समय तुलना के लिए किया था । २ उनका मत है कि मोक्षप्रकाश एक प्रकार से कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड का परिवर्धन मात्र है और इस निबन्ध ग्रन्थ से अनेक लम्बे अंशों को अपने में समाविष्ट किये है । अतः मोक्षप्रकाश के प्रमाण का कोई स्वतन्त्र महत्त्व नहीं है और उसकी कोई अधिक उपयोगिता नहीं है । मात्र वीरमित्रोदय में देवल के उद्धरणों के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि देवल धर्मसूत्र सत्रहवीं शताब्दी तक अपने पूर्णं रूप में वर्तमान था । लक्ष्मीधर ने ऐश्वर्यों के विषय में देवल के मत को जो महत्त्व दिया है, उससे यह प्रतीत होता है कि वे देवल द्वारा प्रस्तुत विवरण को सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रामाणिक मानते थे । सम्भवतः यह देवल धर्मसूत्र में एक पृथक् अध्याय था, किन्तु हमारे पास इसके शीर्षक का निर्धारण करने का कोई प्रमाण अथवा आधार नहीं है । लक्ष्मीधर ने मोक्षकाण्ड में इस अध्याय को योगविभूतयः ( योग द्वारा प्राप्त अतिमानवीय शक्तियों) की संज्ञा दी है । योगविभूति का अर्थ है - ऐश्वर्य । यह संभावना सर्वथा उपयुक्त है कि लक्ष्मीधर ने योगविभूतयः शीर्षक अध्याय की रचना मुख्यतः देवल से उद्धृत लम्बे अंश के रूप में करने के साथ ही देवल धर्मसूत्र के इस अध्याय के शीर्षक को भी अपने ग्रन्थ के लिए ग्रहण किया था । इस उद्धरण में गद्य और पद्य दोनों मिश्रित हैं। प्रारम्भ में सूत्र हैं और अन्त में ९ श्लोक हैं । अंश के आरम्भ में ८ ऐश्वर्य-गुणों के नाम दिये गये हैं । दूसरे सन्दर्भ में अन्य ग्रन्थों में देवल से जो उद्धरण प्राप्य हैं, उनसे देवल धर्मसूत्र में विषयों के प्रस्तुतीकरण की शैली की जो जानकारी मिलती है, उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि उद्धरण में देवल धर्मसूत्र के १. पी० वी० कणे, हिस्ट्री आव धर्मशास्त्राज़, खण्ड १, भाग २, पृ० ९४८ ॥ २. कृत्यकल्पतरु भूमिका, पृ० ११ । ३. वही, पृ० ८; पुनः देखिये पृ० ३४८ । ४. अमरकोश, १.१.३६ विभूतिभू तिरैश्वर्यमणिमादिकमष्टधा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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