Book Title: Deval Dharm Sutra me Aeshwaryo ka Vivaran
Author(s): Lallan Gopal
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 5
________________ लल्लनजी गोपाल श्लोक ६–महा० में “परशल्यार्थं" के स्थान पर " चवशाः पार्थं " पाठ आया है (मोक्षप्रकाश में “परभोगार्थ” पाठ है) और प्रथम पंक्ति के उत्तरार्ध में समस्त पद को तोड़कर "योगा योग - " पाठ दिया गया है। दोनों ही में देवल० द्वारा प्रस्तुत पाठ महा० की किसी प्रतिलिपि द्वारा स्वीकृत नहीं है । १०२ श्लोक ७ – यह महा० के श्लोक २५ से अभिन्न है । श्लोक ८ - महा० में "आत्मानं तु" और " योगं” स्थान पर क्रमशः "आत्मनां च" और "योगः " पाठ उपलब्ध है । देवल० के ये दोनों ही पाठ पूना संस्करण में उल्लिखित पाठान्तरों में प्राप्य हैं। ་་ श्लोक ९ – महा० में प्राप्य परिवर्तन ये हैं- "कैश्चित् केश्चिद्दुःखं" के स्थान पर "चैव पुनश्चोत्रं","पुनस्तानि” के स्थान पर " पुनः पार्थ" और " - गणा - ” के स्थान पर " -गुणा - " । किन्तु इनमें से देवल० का केवल एक ही पाठ " पुनस्तानि पूना संस्करण में उल्लिखित पाठान्तरों में मिलता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि पूना के संस्करण में कुछ दूसरे पाठ स्वीकृत हैं, देवल० आये पाठ का समर्थन कुछ प्रतिलिपियों में मिलता है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि देवल धर्मसूत्र और महाभारत में से कौन मूल है और ग्रहीता या प्रतिकर्ता है । यद्यपि सभी ९ श्लोक भावों की एकता की दृष्टि से निरन्तर हैं, वीरमित्रोदय के मोक्षप्रकाश में श्लोक ५ के बाद " तथा " शब्द मिलता है । इससे यह प्रतीत होता है कि मित्र मिश्र ने श्लोकों के दो वर्गों ( श्लोक १-५ और श्लोक ६ - ९ ) को देवल धर्मसूत्र में दो पृथक् स्थलों से लिया था । महाभारत में ये सभी श्लोक परस्पर सम्बन्धित और निरन्तर क्रम में प्राप्य हैं । अतः यह सम्भावना उपस्थित होती है कि महाभारत के संस्कर्ता ने इन श्लोकों को देवल धर्मसूत्र से लिया था । किन्तु मोक्षप्रकाश में श्लोकों का जो वर्गीकरण है', उसका समर्थन कृत्यकल्पतरु में मोक्षकाण्ड से नहीं होता । कृत्यकल्पतरु पूर्वकालीन है और मोक्षप्रकाश में बहुत सी सामग्री उसी से ली गई है । अतः मोक्षप्रकाश में श्लोक ५ के बाद " तथा " शब्द को अनावश्यक मानना होगा और सभी ९ श्लोकों को एक क्रम में जुड़ा स्वीकार करना होगा । इस प्रकार महाभारत को ग्रहीता अथवा अनुकर्ता मानने का तर्क शिथिल हो जाता है । दोनों ग्रन्थों में किसने किससे लिया है, इसका निर्णय करना कठिन नहीं है । इन श्लोकों में हम सम्बोधन कारक का रूप " राजन् ” ( देवल० १, २ और ४), "प्रभो " ( देवल० १) और " भरतर्षभ " ( देवल० ८ ) में देखते हैं । देवल धर्मसूत्र के सम्भावित रूप में किसी ऐसे सन्दर्भ अथवा स्थल की सम्भावना नहीं है, जिसमें शब्दों के इन रूपों के उपयोग का कोई औचित्य हो । स्पष्ट है कि ये श्लोक भरत वंश के किसी राजा या राजकुमार को सम्बोधित करके कहे गये कथन हैं । इससे १. मित्रमिश्र ने इन श्लोकों को " तथा " के द्वारा दो वर्गों में जो विभक्त किया, उसके पीछे कदाचित् यह तर्क था कि यद्यपि इन श्लोकों में योगी की शक्तियों का ही गुणगान है, हमें यहाँ दो स्पष्ट बातें मिलती हैंएक में दुर्बल योगी की तुलना में उसकी शक्तियों का निरूपण और दूसरे में उसकी कुछ अतिमानवीय शक्तियों का उल्लेख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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