Book Title: Deval Dharm Sutra me Aeshwaryo ka Vivaran Author(s): Lallan Gopal Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 6
________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण प्रतीत होता है कि इन श्लोकों का उचित और मूल स्थान महाभारत में ही है, जहाँ वे भीष्म के द्वारा युधिष्ठिर को दी गई शिक्षा के अन्तर्गत प्राप्य हैं। महाभारत में इन श्लोकों से पूर्व का श्लोक और साथ ही उनके अनुवर्ती श्लोक परस्पर सम्बन्धित हैं और एक तार्किक क्रम में उपस्थित हुए हैं। इस प्रकार देवल का प्रथम श्लोक ( महा० १२.२८९.१९) महाभारत के १२.२८९.१८ से सीधे उत्पन्न प्रतीत होता है और इसी प्रकार महाभारत के १२.२८९.२८ और २९ देवल के नौ श्लोकों की स्वाभाविक परिणति हैं। पुनः इन नौ में से दो श्लोकों का जो पाठ महाभारत में उपलब्ध है, उसमें "पार्थ" का नाम सम्बोधन कारक में आता है । देवल में उनके समानान्तर श्लोकों में "पार्थ" के नाम का उच्चारण नहीं हुआ है। देवल के श्लोक ६ में 'चावशः पार्थ" के स्थान पर "परशल्यार्थ'३ पाठ है और इसी प्रकार श्लोक ९ में "पुनः पार्थ" के स्थान पर “पुनस्तानि" पाठ मिलता है। यह परिवर्तन देवल धर्मसूत्र के लेखक ने कदाचित् जानबूझकर किया था। किन्तु यह महाभारत से इन श्लोकों के हरण को छुपाने का बहुत ही भोंडा प्रयास है। लेखक ने कुछ अन्य शब्दों (“राजन्", "प्रभो" और "भरतर्षभ" ) को यथास्थान रहने दिया है, जब कि वे देवल के सन्दर्भ के सर्वथा अनुपयुक्त हैं और इस प्रकार अधमर्ण की पहचान खुले स्वर से कर रहे हैं। शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य में दो श्लोकों को उद्धृत किया है, जो देवल के श्लोक ८ और ९ ( = महा० १२।२८९।२६-२७ ) ही हैं, किन्तु शङ्कर ने यह नहीं कहा है कि ये श्लोक देवल धर्मसूत्र से उद्धृत किये जा रहे हैं। जैसा हमने ऊपर कहा है शङ्कर को देवल धर्मसूत्र का परिचय भलीभाँति प्राप्त था। अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शङ्कर ने इन दोनों श्लोकों का सम्बन्ध उनके मूल स्रोत महाभारत से जोड़ना चाहा, न कि देवल धर्मसूत्र से । ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि देवल में ये नौ श्लोक महाभारत से लिये गये थे। इसकी स्वाभाविक निष्पत्ति यह होगी कि देवल धर्मसूत्र की रचना को महाभारत के शान्तिपर्व के अध्याय २८९ ( पूना संस्करण ) की रचना के काल के उत्तर में रखा जाय । १. महाभारत, १२.२८९.२४,२७ । २. “पार्थ" प्रायः अर्जुन के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु यह मातृवाचक है और युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के लिए समान रूप से सार्थक है । यह “पृथा" से बना है, जो कुन्ती का मूल नाम था। कुन्ती यादवनरेश शुर की पुत्री थी, किन्तु उसका पालन उसके सन्तानहीन पितृव्य कुन्ति अथवा कुन्तिभोज ने किया था । पाण्डु के साथ विवाह के पूर्व वह कर्ण की माता बनी और विवाह के बाद उसने युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म दिया। "पार्थ" का उपयोग पार्थिव अथवा राजकुमार के अर्थ में भी होता है। यहाँ "पार्थ" युधिष्ठिर का बोधक है । ३. जैसा हमने पहले देखा है, इस पाठ का भी समर्थन महाभारत की कुछ प्रतिलिपियों से मिलता है । ४. ब्रह्मसूत्र, १.३.२७ । शङ्कर ने इन श्लोकों का उल्लेख "ततः स्मतिरपि" शब्दों के द्वारा किया है। स्मरणीय है कि अन्यत्र समानान्तर सन्दर्भो में शङ्कर ने “स्मृति" शब्द का उपयोग स्मृतिग्रन्थ के अर्थ में नहीं किया है । यहाँ स्मृति को श्रुति के विरोध में रखा गया है और यह महाभारत, गीता और पुराणों का द्योतक है। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि शङ्कर ने सम्बोधन कारक में "भरतर्षभ" शब्द को हटाया नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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