Book Title: Dakshin me Jain Ayurved ki Parampara
Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ "आचार्य उग्रादित्य ने अपने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना ८०० ई. के पूर्व ही कर ली थी किंतु अमोघवर्ष के आग्रह पर उन्होंने उसकी राजसभा में आकर अनेक वैद्यों एवं विद्वानों के समक्ष मद्य-मांस-निषेध का वैज्ञानिक विवेचन किया और इस ऐतिहासिक भाषण को 'हिताहित अध्याय' के नाम से परिशिष्ट रूप में अपने ग्रंथ में सम्मिलित किया।'' इस प्रकार आचार्य उग्रादित्य का उत्तरकालीन जीवन दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशीय सम्राट अमोघवर्ष प्रथम का समकालीन रहा।' इस शासक का शासनकाल ८१४ से ६७८ ई० रहा था। सम्राट अमोघवर्ष प्रथम को नृपतुंग, महाराजशवं, महाराजशण्ड, वीरनारायण, अतिशय धवल, शर्ववर्म, वल्लभराय, श्रीपथ्वीवल्लभ. लक्ष्मीवल्लभ, महाराजाधिराज, भटार, परमभट्टारक आदि विरुद प्राप्त थे।' यह गाविन्द तृतीय का पुत्र था। जिस समय सिंहासन पर बैठा, उस समय उसकी आयु ६-१० वर्ष की थी अत: गुर्जरदेश का शासक, जो उसके चाचा इन्द्र का पूत्र था, कर्कराज उसका अभिभावक और संरक्षक बना । ८२१ ई० में अमोघवर्ष के वयस्क होने पर कर्कराज ने विधिवत् राज्याभिषेक किया। अमोघवर्ष के पिता गोविन्द तृतीय ने एलोरा और मयूरखंडी (नासिकबोगस) से हटाकर राष्ट्रकूटों की नवीन राजधानी सायखेट ( मलखेड) में स्थापित की थी। परंतु उसके काल में इसकी बाहरी प्राचीर मात्र निर्माण हो सकी। अमोघवर्ष ने अनेक संदर भव्यप्रसादों, सरोवरों और भवनों के निर्माण द्वारा उसका अलंकरण किया । अमोघवर्ष एक शांतिप्रिय और धर्मात्मा शासक था। युद्धों का संचालन प्रायः उसके सेनापति और योद्धा ही करते रहे। अतः उसे वैभव, समृद्धि और शक्ति को बढ़ाने का खूब अवसर प्राप्त हुआ। "८५१ ई० में अरब सौदागर सुलेमान भारत आया था। उसने 'दीर्घायु बल हरा' (बल्लभराय) नाम से अमोघ का वर्णन किया है और लिखा है कि उस समय संसार-भर में जो सर्वमहान् चार सम्राट् थे वे भारत का वल्लभराय (अमोघवर्ष), चीन का सम्राट्, बगदाद का खलीफा और रूम (कुस्त न्तुनिया) का सम्राट् थे।" स्वयं वीर, गुणी और विद्वान् होने के साथ उसने अनेक विद्वानों, कवियों और गुणियों को अपनी राजसभा में आश्रय प्रदान किया था। इसके काल में संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ी और तमिल भाषाओं के विविध विषयों के साहित्य-सृजन में अपूर्व प्रोत्साहन मिला। सम्राट अमोघवर्ष दिगम्बर जैनधर्म का अनुयायी और आदर्श जैन श्रावक था। वीरसेन स्वामी के शिष्य आचार्य जिनसेनस्वामी का वह शिष्य था । जिनसेन स्वामी उसके राजगुरू और धर्मगुरू थे।" जैसाकि गुणभद्राचार्य कृत "उत्तर-पुराण' (८६८ ई०) में लिखा है “यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरदारांतराविर्भावत्पादाम्भोजरजः पिशंगमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः। संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलम् स श्रीमाजिनसेनपूज्यभगत्पादो जगन्मंगलम् ।।" आचार्य जिनसेन द्वारा रचित 'पार्वाभ्युदय' नामक महान् काव्य में सर्ग के अंत में इस प्रकार का उल्लेख मिलता हैइत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरुश्रीजिनसेनाचार्यविरचिते मेघदूतवेष्टिते पार्वाभ्युदये भगवत्कैवल्यवर्णनम् नाम चतुर्थः सर्गः इत्यादि।" अतः आचार्य जिनसेन का अमोघवर्ष का गुरू होना प्रमाणित है। १. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास; एक दृष्टि, प.० ३०२. २. भारत के प्राचीन राजवश, भाग ३,५०३८. ३. प्रो० सालेतोर, Mediaval Jainism, p. 38: ५० कैलाशचंद्र दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ०९०. ४. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास: एक दृष्टि, प.० ३०१. ५. प्रोफेसर सालेतोर, Mediaval Jainism, p. 38. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14