Book Title: Dakshin me Jain Ayurved ki Parampara Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 6
________________ अमोघवर्ष ने जैन विद्वानों को भी महान संरक्षण प्रदान किया और अनेक जैन मुनियों को दान दिये। वह स्याद्वादविद्या का प्रेमी था। इसके आश्रित प्रसिद्ध गणिताचार्य महावीराचार्य ने अपने जैन गणित ग्रन्थ 'गणितसार संग्रह' में अमोघवर्ष को स्याद्वादसिद्धांत का अनुकरण करने वाला कहा है । इसके शासनकाल और आश्रय में सिद्धान्तग्रन्थ' की 'जयधवला' नामक टीका ( ई० ८३७) की पूर्ति जिनसेन स्वामी ने की । इस टीका का लेखन प्रारम्भ उनके गुरु वीर सेन स्वामी ने किया था। इसके अतिरिक्त आचार्य शाकटायन पाल्यकीर्ति ने 'शब्दानुशासन' व्याकरण और उसकी अमोघवृत्ति की रचना की। स्वयं सम्राट् अमोघवर्ष ने संस्कृत में 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' नामक नीतिग्रन्थ और कन्नड़ी में 'कविराजमार्ग' नामक छंद अलंकार का शास्त्रग्रन्थ रचा था। 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष ने अपने पिता के समान ही जीवन के अंतिमकाल में राज्य त्याग दिया था ।" ६० वर्ष राज्य करने के बाद ८७५-७६ ई० के लगभग अपने ज्येष्ठपुत्र कृष्ण द्वितीय को राज्य सौंप कर अमोघवर्ष श्रावक के रूप में जीवन यापन करने लगे । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यही अमोघवर्ष प्रथम नृपतुरंग वल्लभराय आचार्य उग्रादित्य का समकालीन शासक था । इसका प्रमाण हमें 'कल्याणकारक' की निम्न पंक्तियों में मिलता है "रूपातः श्रीनृपतु गवल्लभ- महाराजाधिराजस्थितः । प्रभिांतरे बहुविधप्रस्थाविद्वज्जने ॥ मांसाशिप्रकरेन्द्र ताखिल भिषग्विद्याविदामग्रतो । मांसे निष्फलतां निरूप्य नितरां जनेन्द्रवैद्य स्थितम् ।। " इत्यशेषविशेषविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशास्त्रेषु मांसनिराकरणार्थ मुग्रादित्याचार्यैर्नृ पतु ' गवल्लभेंद्रसभायामुद्घोषितं प्रकरणम् ( कल्याणकारक, हिताहिताध्याय, समाप्तिसूचक अंश ) । T अर्थात् ‘प्रसिद्ध नृपतु ंग वल्लभ (राय) महाराजाधिराज की सभा में, जहाँ अनेक प्रकार के प्रसिद्ध विद्वान् थे मांस भक्षण की प्रधानता का पोषण करने वाले वैद्यकविद्या के विद्वानों (वैद्यों ) के सामने इस जैनेन्द्र (जैन मतानुनायी ) वैद्य ने उपस्थित होकर मांस की निष्फलता ( निरर्थकता को पूर्णतया सिद्ध कर दिया। इस प्रकार सभी विशिष्ट, दुष्ट मांस के भक्षण की पुष्टि करने वाले वैध शास्त्रों में मांस का निराकरण करने के लिए उग्रादित्याचार्य ने इस प्रकरण को नृपतुरंग वल्लभ राजा की सभा में उद्घोषित किया । ) इस वर्णन में जिस राजा के लिए उग्रादित्याचार्य ने 'नृपतुरंग', 'वल्लभ', 'महाराजाधिराज', 'वल्लभेन्द्र' विरुदों का प्रयोग किया है, वह स्पष्टरूप से राष्ट्रकूटवंशीय प्रतापी सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम (८१४ -८७७ ई०) ही था। क्योंकि ये सभी विरुद उसके लिए ही प्रयुक्त हुए है. जैसा कि हम पूर्व में लिख चुके हैं। अतएव श्री नाथूराम प्रेमी का यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता उग्रादित्य राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के समय के बतलाये गये हैं, परन्तु इसमें संदेह है । उसकी प्रशस्ति की भी बहुत-सी बातें संदेहास्पद हैं। कृति - परिचय उग्रादित्याचार्य की एक मात्र वैद्यक कृति 'कल्याणकारक' मिलती है। इसमें कुल २५ 'परिच्छेद' (अध्याय) हैं और उनके बाद परिशिष्ट के दो अध्याय हैं-१ रिष्टाध्याय, और २ हिताहिताध्याय । इन परिच्छेदों के नाम इस प्रकार हैं (अ) स्वास्थ्यरक्षणाधिकार के अंतर्गत परिच्छेद१. शास्त्रावतार, २. गर्भोत्पत्तिलक्षण, ५. अन्नपानविधि ६ रसायनविधि। - १. विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । चितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥" (प्र०र० मा० ) २. श्री नाथूराम प्रेमी, जेन साहित्य और इतिहास, पृ० ११. १८८ Jain Education International ३. सूत्रव्यावर्णनम् (शरीर का वर्णन ), ४ For Private & Personal Use Only धान्यादिगुणागुण-विचार, आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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