Book Title: Dakshin me Jain Ayurved ki Parampara
Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 10
________________ 'कल्याणकारक' आधारभूत जैन-आयुर्वेद ग्रंथ _ 'कल्याणकारक' की रचना से पूर्व जिन जैन आयुर्वेदज्ञों ने ग्रन्थों का प्रणयन किया था, उनका उल्लेख उग्रादित्य ने निम्न पंक्तियों में किया है "शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिकं शल्यतंत्र च पात्रस्वामिप्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनः प्रसिद्धः। काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादः शिशूनां वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादेमुनीद्र': ।। (क० का० २०/८५) आयुर्वेद के आठ अंग हैं । आठ अंगों पर पुथक्-पृथक् जैन आयुर्वेद ग्रंथ रचे गये थे। इन ग्रंथों के नाम व उनके प्रणेता के नाम निम्नानुसार हैं : (१) शालाक्यतंत्र पूज्यपाद (२) शल्यतंत्र पात्रस्वामि (३) विष और उग्रग्रहशमन विधि सिद्धसेन (अगदतंत्र और भूतविद्यापरक) (४) कायचिकित्सा दशरथगुरु (५) शिशुचिकित्सा (कौमारभृत्य) मेघनाद (६) दिव्यामृत (रसायन) और वृष्य (वाजीकरण) सिंहनाद (पाठांतर-सिंहसेन) इनके अतिरिक्त समंतभद्राचार्य ने इन आठों अंगों को एक साथ पूर्ण रूप से विस्तारपूर्वक प्रतिपादन करने वाले वैद्यग्र'थ की रचना की थी। उसी के आधार पर उग्रादित्य ने संक्षेप में वर्णन करते हुए 'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ की रचना की थी "अष्टांगमप्यखिलमत्र समंतभद्रः प्रोक्तं सविस्तरवचोविभवविशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ।। (क० का० प्र० २०/८६) इस शास्त्र (प्राणावाय) का अध्ययन उग्रादित्य ने श्रीनंदि से किया था। वे उस काल के प्राणावाय के महान् आचार्य थे। ग्रन्थगत विशेषताएँ प्राणावाय-परम्परा का उल्लेख करने वाला यह एकमात्र ग्रन्थ उपलब्ध है। संभवतः इसके पूर्व और पश्चात् का एतद्विषयक साहित्य काल-कवलित हो चुका है। इसमें 'प्राणावाय' की दिगम्बर सम्मत परम्परा दी गई है। अपने पूर्वाचार्यों के रूप में तथा जिन ग्रन्थों को आधार-भूत स्वीकार किया गया है उनके प्रणेताओं के रूप में उग्रादित्य ने जिन मुनियों और आचार्यों का उल्लेख किया है, वे सभी दिगम्बर-परम्परा के हैं। अतः यह निश्चित रूप से कह सकना संभव नहीं कि इस संबंध में श्वेताम्बर-परम्परा और उसके आचार्य कौन थे । फिर भी ग्रन्थ की प्राचीनता (८वीं शती में निर्माण होना) और रचनाशैली व विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए कल्याणकारक का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है । इस ग्रन्थ के अध्ययन से जो विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, वे निम्न हैं (१) ग्रंथ के उपक्रम भाग में आयर्वेद के अवतरण-मर्त्यलोक की परम्परा का जो निरूपण किया गया है, वह सर्वथा नवीन है। इस प्रकार के अवतरण संबंधी कथानक आयुर्वेद के अन्य प्रचलित एवं उपलब्ध शास्त्र ग्रन्थों, जैसे चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, काश्यपसंहिता, अष्टांग संग्रह आदि में प्राप्त नहीं होता। कल्याणकारक का वर्णन 'प्राणावाय'-परम्परा का सूचक है । अर्थात् प्राणावाय' संज्ञक जैन-आगम का अवतरण तीर्थंकरों की वाणी में होकर जन-सामान्य तक पहुंचा-इस ऐतिहासिक परम्परा का इसमें वर्णन है। १६२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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