Book Title: Dakshin me Jain Ayurved ki Parampara Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ यह मत मान्य नहीं, केवल अनुमान पर आधारित है क्योंकि पहले राष्ट्रकूटों का वेंगि पर अधिकार नहीं था। अमोघवर्ष प्रथम ने उस पर सबसे पहले अधिकार किया था। यह विष्णुराज, जो वेंगि का शासक था, निश्चय ही कलि विष्णुवर्धन और अमोघवर्ष प्रथम से पूर्ववर्ती विष्णुवर्धन चतुर्थ नामक अत्यंत प्रभावशाली और जैन मतानुयायी पूर्वी चालुक्य राजा था। इसका शासनकाल ई० ७६४ से ७६६ तक रहा। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने भी यही उल्लिखित किया है कि विष्णुवर्धन चतर्थ चालुक्य राजा के काल में श्रीनन्दि सम्मानित हुए थे। निवासस्थान और काल उग्रादित्य की निवासभूमि 'रामगिरि' थी, जहाँ उन्होंने श्रीनन्दि गुरु से विद्याध्ययन तथा 'कल्याणकारक' ग्रंथ की रचना की थी। कल्याणकारक में लिखा है "वेंगीशत्रिकलिंगदेशजननप्रस्तुत्यसानत्कटः प्रोद्यवक्षलताधिताननिरत : सिद्धश्च विद्याधरैः । सर्वे मंदिर कंदरोपमगहाचैत्यालयालंकृते रम्ये रामगिरी मया विरचितं शास्त्र हितं प्रणिनाम् ।। (क० का० परि० २०, श्लोक ८७) ।' 'रामगिरि' की स्थिति के विषय में विवाद है। श्री नाथूराम प्रेमी का मत है कि छत्तीसगढ़ (महाकौशल) क्षेत्र के सरगुजा स्टेट का रामगढ ही यह रामगिरि होगा। यहाँ गुहा, मंदिर और चैत्यालय हैं तथा उग्रादित्य के समय यहाँ सिद्ध और विद्याधर विचरण करते रहे होंगे। उपयुक्त पद्य में रामगिरि को विकलिंग प्रदेश का प्रधान स्थान बताया गया है। गंगा से कटक तक के प्रदेश को उत्कल या उत्तरलिंग, कटक से महेन्द्रगिरि तक के पर्वतीय भाग को मध्य कलिंग और महेन्द्र गिरि से गोदावरी तक के स्थान को दक्षिण कलिंग कहते थे। इन तीनों की मिलित संज्ञा 'त्रिकलिंग' थी। कालिदास द्वारा वर्णित रामगिरि भी यही स्थान होना चाहिए जो लक्ष्मणपुर से १२ मील दूर है। पद्मपुराण के अनुसार यहाँ रामचन्द्र ने मंदिर बनवाये थे । यहाँ पर्वत में कई गुफाएं और मंदिरों के भग्नावशेष हैं । वस्तुतः यह ‘रामगिरि', विजगापट्टम जिले में रामतीर्थ नामक स्थान है। यहाँ पर 'दुर्ग पंचगुफा' की भित्ति पर एक शिलालेख भी है। इसमें किसी एक पूर्वीय चालुक्य राजा के संबंध में जानकारी दी हुई है। यह शिलालेख ई० १०११-१२ का है । इससे यह प्रकट होता है कि रामतीर्थ जैनधर्म का एक पवित्र स्थान था और यहाँ अनेक जैन अनुयायी रहते थे। उक्त शिलालेख में 'रामतीर्थ को 'रामकोंड' भी लिखा है। पं० कैलाशचन्द्र के अनुसार- ईसवीसन की प्रारंभिक शताब्दियों में रामतीर्थ बौद्धधर्म के अधिकार में था। यहाँ से बौद्धधर्म के बहत अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह उल्लेखनीय है कि बौद्धधर्म के पतनकाल में कैसे जैनों ने इस स्थान पर कब्जा जमाया और उसे अपने धर्मस्थान के रूप में परिवर्तित कर दिया। १. डॉ. ज्योतिप्रमाद जैन : भारतीय इतिहाम, एक दष्टिः पृष्ठ २६०. २. नाथराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २१२. 'स्थान रामगिरिगिरीन्द्रसदृश: सर्वार्थ सिद्धिप्रदं' (क. का., प० २१, श्लोक ३) ३. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २१२. ४. वही, पृ. २१२. ५. पं० कैलाशचंद्र, “दक्षिण में जैनधर्म" पृ. ७०-७१. जैन प्राच्य विद्याएँ १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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