Book Title: Dada Guruo ke Prachin Chitra Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf View full book textPage 1
________________ दादा गुरुओं के प्राचीन चित्र [भंवरलाल नाहटा] आर्य संस्कृति में गुरु का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। में, लोगों के घरों में दादासाहब के चित्र हजारों की परमात्मा का परिचय कराने वाले तथा आत्मदर्शन कराने संख्या में हाथ के बने हुए पाये जाते हैं और अब यंत्र युग वाले गुरु ही होते हैं । यों तो गुरु कई प्रकार के होते हैं पर में तो एक-एक प्रकार के हजारों हो जाय, यह स्वाभाविक जैनदर्शन में उन्हों सद्गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है है। इस लेख में हमें दादा साहब के जीवनवृत्त से सम्बन्धित जो आत्मद्रष्टा हैं। जिसने मार्ग देखा है वही मार्ग दिखा चित्रों का संक्षिप्त परिचय कराना अभीष्ट है जिससे हमारे सकता है क्योंकि दीपक से दीपक प्रकट होता है। हजारों इस कलात्मक और ऐतिहासिक अवदान पर पाठकों का बुझे हुए दीपक कोई कामके नहीं, जागती ज्योति एक ही विहंगावलोकन हो जाय । विश्व को आलोकित कर सकती है। भगवान महावीर के जो तत्त्व व्याख्यान द्वारा या लेखन द्वारा सो पृष्ठों पश्चात् अनेक सदगुरुषों ने जैन-शासन का उद्योत किया में नहीं समझाया जा सकता उसे एक ही चित्रफलक को है व धर्म को बचाकर अक्षुण्ण रखा है। पंचमकाल में ऐसे देख कर या दिखाकर आत्मसात् किया व कराया जा सकता २००४ युगप्रधान क्षायिक द्रष्टा पुरुष होंगे ऐसा शास्त्रों है। चित्र-विधाओं में भित्तिचित्रों का स्थान सर्वप्रथम में वर्णन है। खरतरगच्छ में कई युगप्रधान सद्गुरु हुए है। प्रागैतिहासिक कालीन गुफाओं के आडे टेढे अंकन हैं जिनमें चारों दादा-गुरुओं का नाम बड़े आदर के साथ से लेकर अजन्ता, इलोरा, सित्तनवासल आदि विकसित लिया जाता है, उनकी हजारों दादावाड़ियां और मूर्ति, कलाधामों और राजमहलों, सेठों-र ईसों के घरों व मन्दिरचरण-पादुके आदि आज भी पूज्यमान हैं । दादावाड़ियों के भित्ति-चित्र भी अपनी कला-सम्पत्ति को आत्मदर्शन प्राप्ति के लिए सद्गुरु की पूजा-भक्ति चिरकाल से संजोये हुए चले आरहे हैं। दादासाहब के अनिवार्य है। अतः भक्त लोग आत्मकल्याण के उद्देश्य जीवनवृत्त संबन्धी चित्र अधिकांश मन्दिरों तथा दादासे गुरु-भक्ति में संलग्न रहने से निष्काम सेवाफल अवश्य वाड़ियों में ही पाये जाते हैं । जीर्णोद्धार आदि के समय प्राप्त करते हैं। जैसे धान्य के लिए खेती करने वाले को प्राचीन चित्रों का तिरोभाव होना अनिवार्य है । पर इस घास तो अनायास ही उपलब्ध हो जाती है, उसी प्रकार परम्परा का विकास होता गया और आज भी मन्दिरों, पुण्य-प्राग्भार से इहलौकिक कामनाएं भी पूर्ण हो ही दादावाड़ियों में जीवनवृत्त के विभिन्न भावों वाले चित्रों जाती हैं। पूजन-आराधन के लिए जिस प्रकार प्रतिमा- का निर्माण होना चालू है । बोकानेर, रायपुर, भद्रावती, पादुकादि आवश्यक है उसी प्रकार चित्र-प्रतिकृति भी दर्शन उदरामसर, भद्रेश्वर आदि अनेक स्थानों के भित्तिचित्र सुन्दर के लिए व वासक्षेप पूजादि के लिए आवश्यक है। तीर्थकर व दर्शनीय हैं । चित्रावली के साथ गुरु-मूर्ति पादुकाओं को रखने की दादासाहब के चित्रों में दूसरी विधा काष्ठफलकों प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। आज भी मन्दिरों की है जिनका प्रारम्भ श्री जिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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