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दादा गुरुओं के प्राचीन चित्र
[भंवरलाल नाहटा]
आर्य संस्कृति में गुरु का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। में, लोगों के घरों में दादासाहब के चित्र हजारों की परमात्मा का परिचय कराने वाले तथा आत्मदर्शन कराने संख्या में हाथ के बने हुए पाये जाते हैं और अब यंत्र युग वाले गुरु ही होते हैं । यों तो गुरु कई प्रकार के होते हैं पर में तो एक-एक प्रकार के हजारों हो जाय, यह स्वाभाविक जैनदर्शन में उन्हों सद्गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है है। इस लेख में हमें दादा साहब के जीवनवृत्त से सम्बन्धित जो आत्मद्रष्टा हैं। जिसने मार्ग देखा है वही मार्ग दिखा चित्रों का संक्षिप्त परिचय कराना अभीष्ट है जिससे हमारे सकता है क्योंकि दीपक से दीपक प्रकट होता है। हजारों इस कलात्मक और ऐतिहासिक अवदान पर पाठकों का बुझे हुए दीपक कोई कामके नहीं, जागती ज्योति एक ही विहंगावलोकन हो जाय । विश्व को आलोकित कर सकती है। भगवान महावीर के जो तत्त्व व्याख्यान द्वारा या लेखन द्वारा सो पृष्ठों पश्चात् अनेक सदगुरुषों ने जैन-शासन का उद्योत किया में नहीं समझाया जा सकता उसे एक ही चित्रफलक को है व धर्म को बचाकर अक्षुण्ण रखा है। पंचमकाल में ऐसे देख कर या दिखाकर आत्मसात् किया व कराया जा सकता २००४ युगप्रधान क्षायिक द्रष्टा पुरुष होंगे ऐसा शास्त्रों है। चित्र-विधाओं में भित्तिचित्रों का स्थान सर्वप्रथम में वर्णन है। खरतरगच्छ में कई युगप्रधान सद्गुरु हुए है। प्रागैतिहासिक कालीन गुफाओं के आडे टेढे अंकन हैं जिनमें चारों दादा-गुरुओं का नाम बड़े आदर के साथ से लेकर अजन्ता, इलोरा, सित्तनवासल आदि विकसित लिया जाता है, उनकी हजारों दादावाड़ियां और मूर्ति, कलाधामों और राजमहलों, सेठों-र ईसों के घरों व मन्दिरचरण-पादुके आदि आज भी पूज्यमान हैं ।
दादावाड़ियों के भित्ति-चित्र भी अपनी कला-सम्पत्ति को आत्मदर्शन प्राप्ति के लिए सद्गुरु की पूजा-भक्ति चिरकाल से संजोये हुए चले आरहे हैं। दादासाहब के अनिवार्य है। अतः भक्त लोग आत्मकल्याण के उद्देश्य जीवनवृत्त संबन्धी चित्र अधिकांश मन्दिरों तथा दादासे गुरु-भक्ति में संलग्न रहने से निष्काम सेवाफल अवश्य वाड़ियों में ही पाये जाते हैं । जीर्णोद्धार आदि के समय प्राप्त करते हैं। जैसे धान्य के लिए खेती करने वाले को प्राचीन चित्रों का तिरोभाव होना अनिवार्य है । पर इस घास तो अनायास ही उपलब्ध हो जाती है, उसी प्रकार परम्परा का विकास होता गया और आज भी मन्दिरों, पुण्य-प्राग्भार से इहलौकिक कामनाएं भी पूर्ण हो ही दादावाड़ियों में जीवनवृत्त के विभिन्न भावों वाले चित्रों जाती हैं। पूजन-आराधन के लिए जिस प्रकार प्रतिमा- का निर्माण होना चालू है । बोकानेर, रायपुर, भद्रावती, पादुकादि आवश्यक है उसी प्रकार चित्र-प्रतिकृति भी दर्शन उदरामसर, भद्रेश्वर आदि अनेक स्थानों के भित्तिचित्र सुन्दर के लिए व वासक्षेप पूजादि के लिए आवश्यक है। तीर्थकर व दर्शनीय हैं । चित्रावली के साथ गुरु-मूर्ति पादुकाओं को रखने की दादासाहब के चित्रों में दूसरी विधा काष्ठफलकों प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। आज भी मन्दिरों की है जिनका प्रारम्भ श्री जिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्त
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सूरिजी के चित्रों से होता है। इसके बाद कलिकाल के प्रारम्भ से मंत्र, संत्र खाम्नाय गर्भित अनेक प्रकार के सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य कुमारपाल एटं वादिदेवसूरि-कुमुदचन्द्र के वस्त्र-पट चित्र पाये जाते हैं। तीर्थपट्ट, सूरिमन्त्र पट्ट शास्त्रार्थ के भाव वाले काष्ठफलक पाये जाते हैं । दादा- व वर्द्धमान विद्या पट्ट में भी गुरुओं के चित्र है। हमारे साहब के चित्रित-काष्ठफलकों का परिचय श्री जैन श्वेता- संग्रह का श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथ पट्ट जो संवत् १४०० के म्बर पंचायती मन्दिर, कलकत्ता के सार्द्ध शताब्दी स्मृति- आमपास का है, चित्रित है। उसमें श्रीतरुणप्रभसूरिजी ग्रन्थ में मैंने प्रकाशित किया है पर एक महत्त्वपूर्ण काष्ठफलक महाराज और उनके शिष्य का महत्वपूर्ण चित्र अंकित हैं। जिसपर श्री जिनदत्तसूरिजी और त्रिभुवनगिरि के यादव गत दो ढाई सौ वर्षों में दादासाहब के स्वतंत्र चित्र
राजा कुमारपाल का चित्र है और जो जेसलमेर के बड़े बने हुए मिलते हैं जो मन्दिरों, दादावाड़ियों, उपाश्रयों, भण्डार में था पर अब श्री थाहरूशाह के भण्डार में लोगों के मकानों और राजमहलों तक में टंगे हुए पाये जाते वर्तमान है, अब तक प्राप्त कर प्रकाशित न कर सकने का हैं। उन चित्रों में दादासाहब के जोवन चरित की महत्वहमें खेद है।
पूर्ण घटनाएं चित्रित हैं। बीकानेर दुर्ग-स्थित महाराजा पुरातत्त्वाचार्य निनविजयजी के 'भारतीय-विद्या' के गजसिंहजो के मल गजमन्दिर में श्रीजिनचन्द्रसूरि सिंधीजी के संस्मरणांक में एवं हमारे युगप्रधान जिनदत्तसूरि (चतुर्थदादा) और अम्बर बादशाह के मिलन का चित्र लगा ग्रन्थ में प्रकाशित चित्र भी उस समय के आचार्य व श्रमण- हआ है। इसके अतिरिक्त यति जयचन्दजी के संग्रह में, श्रमणी वर्ग के नामोल्लेख युक्त होने से महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे श्री जिनचारित्रसुरिजी के पास, बद्रीदासजी के मन्दिर अभय जैन ग्रन्थालय - शंकरदान नाहटा कलाभवन का चित्र कलकत्ता में, पूरणचन्द्र जी नाहर के संग्रह में पंचनदी इन सब चित्रों में प्राचीन है जो दादासाहब के आचार्य पद साधन के एवं लखनऊ, जीयागंज आदि अनेक प्राप्ति ११६६ से पूर्व अर्थात् सं० ११५० के आस-पास का स्थानों में प्राचीन चित्र पाये जाते हैं। उन्हीं के अनुकरण है । पुरातन चित्रकला की दृष्टि से ये उपादान अत्यन्त में तपागच्छ य श्रीमान् हीर विजयसृरिजी महाराज और मूल्यवान हैं।
अकबर मिलन के चित्र भी पिछले पचास वर्षों में बनने ___ काष्ठफलकों के पश्चात् ग्रन्थों में चित्रित पूर्वाचार्यों के प्रारम्भ हुए हैं। प्रसिद्ध वक्ता व लेखक मुनिवर्य श्री विद्याचित्रों में हेमचन्द्राचार्य-कुमारपाल के चित्रों के पश्चात् विजयजी महाराज ने अपने लखनऊ चातुर्मास में सर्वप्रथम खंभात भण्डार स्थित श्रीजिनेश्वरसूरि ( द्वितीय ) का हीरविजयसूरिजी और अकबर का चित्र निर्माण कराया था। चित्र अत्यन्त महत्व का है जो हमारे ऐतिहासिक जन काव्य खरतरगच्छ में चारों दादासाहब एवं जिनप्रभसूरिजी संग्रह में मुद्रित है। तत्पश्चात् कल्पसूत्र, शालिभद्र चौपाई और सुलतान मुहम्मद बादशाह के मिलन सम्बन्धी जितने आदि ग्रन्थों में श्री जिनराजसूरि, श्री जिनरंगसूरि आदि के चित्र पाये जाते हैं उनमें लोकप्रवाद और स्मृति दोष से एक चित्र उपलब्ध हैं। सिंघीजी के संग्रह के शाही चित्रकार का जीवनवृत्त दूसरे से सम्बन्धित समझकर घटा विपर्यय शाहिवाहन चित्रित शालिभद्र चौपाई के ऐतिहासिक चित्र अंकित हो गया है पर हमें यहाँ उसके ऐतिहासिक विश्लेकाल्पनिक न होकर असली है । अठारहवीं-उन्नीसवीं शती के षण में न जाकर लोकमान्यता और श्रद्धा-भक्ति द्वारा विज्ञप्ति-पत्रों में जैनाचार्यों के संख्याबद्ध चित्र संप्राप्त हैं जो निमित चित्रों का परिचय देना ही अभीष्ट है। ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी सौ वर्ष पूर्व जयपुर के रामनारायणजी तहबीलदार
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के रास्ते में रहने वाले गणेश मुसब्बर ( चित्रकार ) को बंगाल में बुलाया गया और उसने बालूचर व कलकत्ता में लगभग पन्द्रह वर्ष रहकर सैकड़ों जैनचित्रों का निर्माण किया। वे चित्र कलासमृद्धि में अपूर्व और मूल्यवान हैं । यदि उन समस्त चित्रों का सांगोपांग वर्णन लिखा जाय तो सैकड़ों पेज हो सकते हैं पर हम यहां केवल दादासाहब आदि के चित्रों का ही संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं ।
१ श्री अभयदेवसूरिजी - यह चित्र ७३४१७ इंच का है । इस चित्र में दाहिनी ओर नगर का दृश्य है जिसके तीनों ओर परकोटा और दो दरवाजे दृष्टिगोचर होते हैं । नगर के तीन स्वर्णमय शिखर वाले जिनालयो पर ध्वजादण्ड सुशोभित है। सामने पौषधशाला में श्री अभयदेवसूरिजी महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष श्यामवर्णवाली शासनदेवी उपस्थित है जिसके सुनहरे जरी के वस्त्र व मुकुट अलंकारादि पहने हुए हैं। शासन देवी नौ कोकड़ी सुलझाने के लिए आचार्यश्री को दे रही है । बाहर अभयदेवसूरिजी महाराज अपने दश शिष्यों के साथ विहार करके जा रहे हैं । साथ में आठ श्रावक तथा दो बालक भी चल रहे हैं । सूरि महाराज एक पलाश वृक्ष के नीचे जयति हुअा स्तोत्र द्वारा प्रभु की स्तवना करते हैं। पास में ६ साधु बैठे हैं और सात श्रावक खड़े हैं । जंगल में जहां गाय का दूध भरता था, स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा प्रकट होती है । एक श्रावक के हाथ में प्रतिमा है । फिर सिंहासन पर विराजमान करके श्रावक लोग स्वर्णकलशों से अभिषेक करते हैं । दो श्रावक प्रभुको न्हवण कराते हैं, चार श्रावक कलश लिये खड़े हैं । एक श्रावक फिर प्रभु का न्हवण जल लाकर सूरिजी के ऊपर छींटता है जिससे रोग निवारण हो जाता है । पृष्ठभूमि में खजूर, ताड़, आम्र, अशोकादि के वृक्ष विद्यमान हैं । मैदान और टीलों पर कहीं-कहीं हरियाली छाई हुई है । चित्र परिचय में निम्नोक्त वाक्य लिखे हुए
(१) १ शासन देवताने कोकड़ी ६ दोनी ( २ ) श्री अभयदेवसूरि ( ३ ) पोशाल ( २ ) अभयदेवसूरि ( ३ ) १ जयतिहुअण स्तवना करी श्री थंभणा पार्श्वनाथजी प्रगट भया जमीन से, णवण कराया ४ पखाल छींटता रोग गया रक्तपित्तीका ।
(२) श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि - यह चित्र ७५X१७ इंच का है जिसमें दोनों दादा गुरुत्रों के चित्रों में विभिन्न भाव हैं । चित्र के वाम पार्श्व में श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष ५२ वीर [१८] एवं पृष्ठभाग में ६४ योगिनी ( २४ ) अवस्थित हैं । गुरुदेवके आगे स्थापनाजी एवं हाथ में मुखवस्त्रिका है । दूसरा पंचनदी का भाव है जिनके तटपर पाँच मन्दिर बने हुए है । पाँचों पीर गुरुदेव के समक्ष करबद्ध खड़े हैं। तीसरा अजमेर के उपाश्रय का है जिसमें गुरुदेव अपने ६ शिष्यों के साथ प्रतिक्रमण कर रहें हैं और कड़कती हुई बिजली को पात्र के नीचे दबा देते हैं। चौथा भाव गुरुदेव के नगर प्रवेश का है, घोड़े के नीचे दबकर मरे हुए मुगलपुत्र को तीन मुसलमान उठाकर लाते हैं । वृक्ष के नीचे बैठे हुए गुरुदेव उसे मंत्रशक्ति से जिला देते हैं । पाँच मुसलमान करबद्ध खड़े हैं । गुरुदेव के पृष्ठ भाग में पाँच शिष्य बैठे हैं गुरुदेव के विहार में पीछे छत्रधारी व्यक्ति व नौ शिष्य दिखाये हैं, सामने १६ श्रावक चल रहे हैं जिनकी पगड़ी पर शिरपेच बँधे है, लम्बे श्वेत जामे पहिन कर कमरबंद व उत्तरासन लगाया हुआ है । पाँचवाँ भाव श्रीजितकुशलसूरिजी से सम्बन्धि मालूम देता है । नगर के मध्य में गुरुदेव उपाश्रय में प्रवचन कर रहे हैं । पाँच साधु सामने खड़े हैं, सात श्रावक बेडे हुए व्याख्यान सुन रहे हैं, भक्त की दुखभरी पुकार सुन कर डूबती हुई नौका को किनारे के दृश्य में हाथ के सहारे से तिरा देते हैं । चित्रकार ने चित्र परिचय रूप कुछ भी नहीं लिखा है ।
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[ ५२ । ३ श्री जिनचन्द्रसूरि ( अकबर प्रतिबोधक)- (३) दादा श्री जिनप्रभसूरिजी काजी की टोपी अकबर यह चित्र ७४॥ X १६॥ इन्च लम्बा है। इसमें नगर के (?) के दरबार में । चार दरवाजे हैं जिनमें दो दोनों ओर व दो पास-पास ही श्री जिनप्रभसूरि मुगल की टोपी उतारी आसमान सुं दिखाये हैं। नगर के कुछ मकान व गुंबजदार मस्जिद हैं वधा सु भाव । तथा उपाश्रय का भाव भी दिखाया है। नगर के मध्य में (४) दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी थाली आकाश में शाही दुर्ग-राजप्रासाद है जिसके बाहर दो संतरी पहरा अकबर के दरबार में । शासन देवी द्वारा थाली का प्रदान । दे रहे हैं । महल के बाँयें कक्ष में चौकी पर श्री जिनचंद्र- श्री जिन मणीयाला चन्द्रसूरिजी चन्द्रमा उगायो थाल चढ़ासूरिजी व उनके पृष्ठ भाग में ७ शिष्य बैठे हैं । सामने कर, सो भाव । सिंहासन पर बादशाह बैठा है जिसके पोछे चारव्यक्ति पंखा, (५) श्री जिनदत्तसूरिजी उज्जैन नगरी थांभ फाड़ पोथी किरणिया-आदि राजचिन्हधारी तथा दो उमराव बैठे हैं। निकाली । सामेला करके उज्जैन नगरी में पधारते हैं । सूरिजी के पास एक काली बकरी और दो श्वेतरंग के बच्चे (६) श्री जिनदत्तसूरिजी मुलतान में पांच नदी पांच खड़े हैं । महल के दूसरे कक्ष में भी इसी भाव का चित्र है पर पोर वश किया। सूरिजी और सम्राट को आसमान की ओर देखते दिखाये (७. श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज दरियाव में जगत हैं जिससे मालूम होता है कि काजी की टोपी वाला भाव सेठ को जहाज तिरायो । चित्रित करना चित्रकार भूल गया है। उपाश्रय (८) श्री जिनदत्तसूरिजी बादशाह सुं भैसा के मुख सुं कक्ष में शासनदेवी सरिजी को थाल अर्पित करती है जिसे बात कराई सो भाव। आसमान में स्थित चन्द्रोदय देख कर सब लोक विस्मित हो जीयागंज के श्री संभवनाथ जिनालय में २७४ १५ जाते हैं। उपाश्रय में चार साधु व एक श्रावक भी विद्य- साइज के दो चित्र लगे हुए हैं जिनमें एक श्री जिनदत्तमान है । खड़े हुए तीन श्रावकों में एक व्यक्ति हाथ ऊँचा सूरिजी और दूसरा श्री जिनकुगलमूरिजो के जीवनवृत्त से करके अमावस्या का चन्द्रोदय बता रहा है। नगर के संबन्धित है। श्री जिनदत्तसूरिजी के चित्र में बावन वीर, बाहर अश्वारोही व ऊंट सवार दोनों ओर दौड़ते हुए जा चौसठ योगिनी; पंचनदी-पंचपीर, बिनली वश कीधी,
उच्चनगर, बड़नगर, अंबड़ हाथे अक्षर आदि के ७ भाव हैं। जीयागंज के श्री विमलनाथजी के मन्दिर स्थित दादा श्री जिनकुशलसूरिजी के चित्र में 'जीहाजतारी' के भाव के जी के मन्दिर में काठगोला से आये हुए निम्नोक्त महत्व- अतिरिक्त एक में युद्ध चित्र, एक में नगर के उपाश्रय में पूर्ण चित्र लगे हुए हैं। ये चित्र भी यशस्वी चित्रकार विराजमान गुरुदेव व बाह्य दृश्य भी हैं पर चित्र परिचय गणेश के बनाये हुए हैं। परिचय इस प्रकार लिखा है : नहीं दिया है।
(१) कलम गणेश चतेरा की साकीन जयपुर ठि, कलकत्ता के श्री महावीर स्वामी के मंदिर में भी चारचांद गोल दरवाजा खेजड़ा के रस्ते रामनारायणजी तवील- पांच चित्र हैं। जिनमें एक छोटा चित्र मणिधारी जिनचन्द्रसूरिजी दार के पास'बावन वीर चौसठ जोगनो" दादा श्रीजिनदत- और सामने बादशाह (राजा मदनपाल) अपने मुसाहिबों के सूरिजो । साइज १८४२२ ।
साथ है। चाँदा-चन्द्रपुर के जिनालयस्थ दादा देहरी में (२) अजमेर में बिजली पात्र के नोचे।
मगिवारोजी महाराज का वित्र लगा हुआ है। यों छोटे
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मोटे बहुत से दादा साहब के प्राचीन चित्र पाए जाते हैं। इस पट्टिका के बांये और दाहिने भाग में चित्रित लखनऊ में भी दादा साहब के चित्र देखे स्मरण है। दृश्यों के दो खंड हैं। इन दोनों खण्डों में जिनदतसूरिजी
प्राचीन चित्रकला के चित्रों का परिचय देने के पश्चात् की व्याख्यान-सभा का आलेखन है। इसके आर वाले उसी के अनुकरण में वर्तमान के यशस्वी और भारत-विश्रुत चित्र-खण्ड में मध्यमें श्री जिनदत्तसूरि विराजमान हैं और चित्रकार श्री इन्द्रदूगड़ का बनाया हुआ विशाल और कला- उनके सम्मुख पं० जिनर क्षित बैठे है। जिनरक्षित के पीछे पूर्ण चित्र कलकत्ता-दादावाड़ी में लगा हुआ है जिसमें बड़े दो श्रावक हैं एवं श्रीजिनदत्तसूरिजी के पृष्ठ भाग में एक दादासाहब के जीवनवृत्त से सम्बन्धित कई भाव चित्रित श्रावक और दो श्राविकाए बैठी हैं। नीचे वाले चित्रहैं । व्याख्यान वाचस्पति मुनि श्री कान्तिसागरजी ने पहले खण्ड में मध्य श्रीजिनदत्तसूरि और उनके सम्मुख श्रीगणभांदकजी में मित्ति-चित्र बनवाये थे और तत्पश्चात् 'श्री समुद्राचार्य और उनके पीछे एक मुनि और एक श्रावक बैठा जिन-गुरु-गुण-सचित्र पुष्पमाला' पुस्तक में इकरंगे और है। जिनदत्तसूरि के पृष्ठ भागमें दो श्रावक बैठे हैं । तिरंगे चित्रों का भी प्रकाशन करवाया है जिसमें चारों सूरिजी के सामने स्थापनाचार रखे हैं, जिनपर 'महावीर' दादा साहब के २४ तिरंगे एवं २ काष्ट फलक चित्र प्रकाशित अक्षर लिखे हुए हैं। हुए हैं।
___ इस चित्रावली से विदित होता है कि यह सचित्र गगिवर्य हेमेन्द्र नागरजी के पत्रानुसार सूरत में श्री जिन- काष्ठमट्टिका श्रीजिनदत्तसूरिजी के निजी संग्रह की किसी दत्तसूरि ज्ञानभण्डार में कतिपय चित्र लगे हैं जिनमें ताड़पत्रीय पुस्तक की है। किसी भक्त श्रावक ने उन्हें किसी १७४ १७ इंच के (१) क्षमाकल्याणोपाध्याय व मुन्ना
बड़े और महत्वपूर्ण ग्रन्थ को लिखाकर भेंट किया था,
जिसके ऊपर की यह एक सुन्दर चित्रालंकृत पटड़ी है । लाल जोहरी व (२) जिन लाभसूरिजी का चित्र दो ढाई सौ
संभव है कि इसमें आलेखित स्त्री पुरुष इस ग्रन्थ को भेट वर्ष प्राचीन हैं । एक बड़े चित्र में बीच में जिनचन्द्रसूरिजी,
करने वाले श्रावक परिवार के ही मख्य व्यक्ति हो। दाहिनी ओर अभयदेवसूरिजी, बांई तरफ जिनवल्लभसूरिजी हैं । दूसरे में वर्द्धमानसूरिजी (मध्य में), जिनेश्वरसूरिजी
मारवाड़ के विक्रमपुर के श्रेष्ठी देवधर निर्मापित ( दाहिने ) और बुद्धि सागरसूरिजी (बांये) हैं। एक चित्र
जिनालय में सूरिजी ने एक भव्य महावीर प्रभु-प्रतिमा की मणिधारीजी का है जिसमें बादशाह सामने खड़ा दिखाया
प्रतिष्ठा की थी। संभव है कि इस चित्रपट्टिका में इसी गया है। चौथे दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी के चित्र में अकबर
प्रतिष्ठा-प्रसंगका आलेखन हो । क्योंकि सूरिजी के समक्ष मिलन का भाव चित्रित है। ये चित्र ५५-६० वर्ष पुराने हैं स्थित स्थापनाचार्य पर "महावीर" नाम लिखा हुआ है। और श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी के उपदेश से बने हुए हैं। कदाचित् इसी देवधर ने इस पट्टिका के साथ वाले ग्रन्थ
और भी दादासाहब व दूसरे खरतरगच्छाचार्यों के को लिखा कर सूरिजी को समर्पित किया हो और इस चित्र उपाश्रयों आदि में पर्याप्त पाये जाते हैं जिन्हें पट्टिका में उक्त प्रसंगके स्मारक-स्वरूप चित्राइन किया शोधपूर्वक प्रकाश में लाना चाहिए ।
गया हो। जैन सम्प्रदाय में ऐसे प्रसंगों के निमित्त पुस्त
कादि लेखन व चित्रपट्टिकादि के आलेखन की प्रवृत्ति अति मनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनदत्तसरिजी के प्राचान काल से चला आ रहा है। चित्रमय काष्ठफलकके तीन ब्लॉक 'भारतीय विद्या'-निबन्ध हम इसे विक्रम की बारहवीं शती के अंतिम और संग्रह में प्रकाशित हुए हैं । इनमें से जिनदत्तसूरि सम्बन्धी दो तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के चित्रालेखन की प्रतीक.. ब्लॉक यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इनका विवरण मुनिजी निश्चित रूपसे मान सकते हैं, इतनी प्राचीन अन्य कोई ने इस प्रकार दिया है :
सुन्दर चित्राकृति अद्यापि हमें उपलब्ध नहीं है।
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शिमिजाक्षिता
कि
रुन्तस्या
महादार
श्री जिनदत्त सूरि और पंडित जिनरक्षित
इसका
श्री जिनदत्तसूरि और गुणसमुद्राचार्य
[ श्री जिनदत्तसूरि सेवासंघ के सौजन्य से ]
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श्री जिनदत्तसूरिजी के चित्रों में प्राचीनतम अथवा न आवे। चित्र के मध्य रूंड में दोनों ओर बोर्ड तथा मध्य दूसरे शब्दों में कहा जाय तो इस शैली की प्राचीन काष्ठ- में फूल बनाया है जिसके बीच में छिद्र है जो ताडपत्रीय पट्टिका का चित्र जो यहां प्रकाशित किया जा रहा है, नथ को डोरी पिरोकर बांधने में काम आता था । श्री जिनदत्तसूरि के आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व का है। चित्र के दूसरे रूण्ड में साध्वियों का उपाश्रय है । पट्ट यह फलक चित्र हमारे ''सेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन" पर प्रवत्तिनी विमलमति बैठी हुई हैं जिनके पृष्ठ भाग में भी में सुरक्षित है।
पीठफलक सुशोभित है । सामने दो साध्वियाँ बैठी हुई हैं ___ यह काष्ठपट्टिका ३४११६ इच की है। इसके चारों जिनके नाम 'नय श्री साध्वी' और 'नयमतिम्' लिखा हुआ
ओर बोर्डर है। इस चित्र के तीन खंड हैं। प्रथम खंड है। तीनों के बीच में स्थापनाचार्यजी रखे हुए हैं, साध्वीजी में आचार्य श्रीगुणसमुद्र और सामने ही आसन पर सोम- के पीछे एक श्राविका आसन पर बैठी हुई है जिसपर उसका चन्द्रगणि ! श्रीजिनदत्तसूरि ) बेटे हुए हैं। आचार्यश्री के नाम नंदीसीर (विका) लिखा हुआ है। चित्रफलक का पृष्ठ भाग में पीठ-फलक है और श्री सोमचन्द्रगणि के नहीं किनारा टूट जाने से जोड़ा हुआ है। है इससे उनका दीक्षापर्याय में बड़ा होना प्रमाणित है। इस सचित्र काष्ठपट्टिका का समय-इसमें श्रीजिनदत्त. दोनों के मध्य में स्थापनाचार्य जी हैं. दोनों के पास रजोहरण सरिजी के दीक्षानाम लिखा हुआ होने से सं० ११६६ के है, दोनों एक गोडा ऊंचा और एक गोडा नीचा किये हुए पूर्व का तो है ही। इसमें आये हुए साधु-सावियों के नाम प्रवचनमुद्रा में आमने सामने बैठे हैं। दोनों के श्वेत "गणधरसाद्धशतक वृहद्वृत्ति" में नहीं मिलते अत: आचार्य वस्त्र हैं।
पद प्राप्ति से पूर्व श्रीजिनदत्तसूरि जी के आज्ञानुवर्तिनी जो आचार्य श्री के पीछे एक श्रावक बैठा है जिसकी धोती साध्वियाँ थीं, उनका नाम प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टि से जांघिये की भांति है। कंधे पर उत्तरीय वस्त्र के अतिरिक्त भी महत्वपूर्ण है। हमारी राय में इस काष्ठपट्टिका का कोई वस्त्र नहीं है जो उस समय के अल्पवस्त्र-परिधान को समय सं० ११५० के आस-पास का है । सूचित करता है। शावक के गले में स्वर्णहार है और अप्रकाशित महत्वपूर्ण काष्ठफलक एक गोडा ऊंचा करके करबद्ध बैठा है, उसके पृष्ठ भाग में जेसलमेर के श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञानभंडार में जो श्रीजिनदो श्राविकाएं भी इसी मुद्रा में हैं, जिनके गले में हार व दत्तसूरि जी और नरपति कुमारपाल की महत्वपूर्ण सचित्र हाथों में चूड़ियाँ और कानों में बड़े-बड़े कर्णफूल है। वस्त्र काष्ठपट्टिका थी, वह अभी थाहरूसाह के भंडार में रखी सबके रंगीन और छींटकी भाँति है, केशपाश का जूड़ा बांधा हुई है। उसे देखकर हमने जो संक्षिप्त विवरण नोट किया हुआ है। श्रावक के मरोड़ी हुई पतली मूछ और ठोड़ी था उसे यहाँ दिया जा रहा हैके भाग को छोड़कर अल्प दाढ़ी है। श्रावक के खुले इस चित्र पट्टिका पर '९ नरपति कुमारपाल भक्तिमस्तक पर घने बालों का गिर्दा है।
रस्तु" लिखा हुआ है। इस फलक के मध्य में नवफणा __सोमचन्द्रगणि के पृष्ठ भाग में दो व्यक्ति बैठे हैं जिनकी पार्श्वनाथ का जिनालय है जिसकी सपरिकर प्रतिमा के वेषभूषा भी उपर्युक्त श्रावकों के सदृश ही है। चित्र शैली उभयपक्ष में गजारुढ़ इन्द्र और दोनों ओर चामरधारी में तत्कालीन प्रथानुसार नेत्र की तीखी रेखाए' और दोनों अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। आँख इसलिए दिखायी है कि चित्र में एकाक्षीपन का दोष भगवान् के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिए हुए भक्त खड़े हैं,
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________________ जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्य करते हुए एवं दो व्यक्ति वाद्य- स्थित साधु का नाम पं० ब्रह्मचन्द्र है। पृष्ठ भाग में दो मंत्र लिए खड़े हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त- राजपुरुष हैं जिनका नाम चित्र के उपरिभाग में "सहणप सूरि जो की व्याख्यान सभा है। आचार्यश्री के पीछे दो (ल' व अनंग लिखा है / साध्वीजी के सामने भी भक्त श्रावक एवं एक शिष्य नरपति राजा कुमारपाल बैठा स्थापनाचार्य और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े हुआ है। राजा के साथ रानी व दो परिचारक विद्यमान खड़ी हैं / गणधरसाईशतक वृहद्धृत्ति के अनुसार पार्श्वनाथ हैं / आचार्य श्रींजिनदत्त सूरिजी का परिचय चित्रकार ने के नदफणों की प्रथा श्रीजिनदतसूरिजी से हो प्रचलित हुई "श्रीयुगप्रधानागम श्रीमजिनदत्त सूरयः // 6 // लिखा है। थी। नरभट में नवफणा पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा जिनालय के बाँयें तरफ श्रीगुणसमुद्राचार्य विद्यमान हैं सूरिजी ने की थी। वह जिनालय आगे चलकर महातीर्थ जिनके सामने स्थापना चारंजी व चतुर्विध संघ है। त्रि के रूप में प्रसिद्ध हो गया। INHETANS सोमचन्द्राणि (श्रीजिनदत्तमुरि) और गुणसमुद्राचार्य [ शंकरदान ना हटा कलाभवन, बीकानेर से ] Iood आज्ञानुवर्तिनी साध्वी नयश्रो और नयमती