Book Title: Chajahad Gautriya Oswal Vansh ka Itihas Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ छाजहड़गोत्रीय ओसवालवंश का इतिहास भँवरलाल नाहटा.... मोसवाल, श्रीमाल, पोरवाड़ आदि जैन-जातियों का इतिहास आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि अपनी गुरु यजमानी कायम करने प्रायः अंधकाराच्छन्न है। यद्यपि कहा जाता है कि भगवान् के लिए जो मनगढंत संवादों की सृष्टि, भ्रांत धारणाएँ इतिहास में महावीर के ७० वर्ष के पश्चात् पार्श्वनाथ-संतानीय श्री रत्नप्रभसूरिजी घालमेल हो गई हैं, उनमें से तथ्यांश निकालना बड़ा कठिन हो ने ओसियाँ नगर में ओसवाल बनाए, पर ऐतिहासिक प्रमाणों का रहा है। ऐसी स्थिति में श्री सोहनलालजी भणशाली का प्रामाणिक अभाव हमें यह बात मानने को विवश नहीं कर सकता। पार्श्वनाथ शिलालेखी प्रयत्न हमें इतिवृत्त सत्यांश के निकट ले जाने में -परम्परा भगवान महावीर के शासन में विलीन होचुकी थी। सक्षम है। कुछ ज्ञान-भंडारों में प्राप्त कवित्त छंदादि भी पाए जाते जैनागमों में पाश्र्थापत्यों के उल्लेख केवल उनके पूर्व संबंध के हैं। भाटों की बहियों में उनके वंश-परम्परा में मिले हुए सत्यांशों द्योतक हो सकते हैं। वस्तुतः चैत्यवासी ढीले पासत्थे वर्ग की की सम्प्राप्ति के भी कथंचित् परवर्ती इतिवृत्त-संकलन में सहायक परम्परा, बारंबार वे ही बँधे-बँधाए नाम हमें उनकी प्रामाणिकता होने को नकारा नहीं जा सकता। में संदिग्ध ही प्रतीत होते हैं। प्राचीन शिलालेख, प्रतिमाओं के पर्वकाल में बडे-बडे विदान ग्रन्थकार होते हए भी उन्होंने अभिलेख, स्थविरावलियाँ, आगम-पंचांगी-टीका, चूर्णि, नियुक्ति, इस विषय की ग्रन्थ-रचना क्यों नहीं की? यदि पहले से इस भाष्य आदि में कहीं भी उन जाति के श्रावकों की, दीक्षित मुनि, परिपाटी को कायम रखा जाता तो हमें इतिहास तो आसानी से आचार्य वर्ग के नामों की गंध तक नहीं पायी जाती, जबकि मिल जाता पर एक उदात्त भावना का रहस्य जो पूर्वाचार्यों की मथुरा आदि के शिलालेख अन्य जाति के लोगों का अस्तित्व दीर्घदृष्टि में था उससे हम वंचित रह जाते। श्री अभयदेवसूरिजी ने प्रत्यक्ष बतलाते हैं। स्वधर्मीकुलक में लिखा है कि एक नवकार मन्त्र को धारण ओसियाँ का मंदिर नौवीं शताब्ती से पूर्व का नहीं है। नही करन वा करने वाला स्वधर्मी बन्धु हमारे सगे भाई से भी बढ़कर है। इस स्वर्णगिरि, जालौर, साँचोर, आदि के मंदिर, कक्कुक, बाउक के भावना में अपना उत्पत्ति-इतिहास वरीयता और कनिष्ठता की। भावना उत्पन्न कर देता अतः यह बात भी कथंचित् स्वीकार्य अभिलेखादि जो भी प्रमाण प्रस्तुत करें, हम विक्रमीय छठी कही जा सकती है। शताब्दी से पूर्व इन जातियों का अस्तित्व प्रमाणित करने में अक्षम है। उपकेशगच्छचरित्रादि सभी ग्रन्थ तेरहवीं, चौदहवीं अपने वंश का गौरव, पूर्वजों के कार्यकलाप आदि जानना शताब्दी के परवर्ती हैं। कुछ ताडपत्रीय ग्रन्थ प्रशस्तियां भी हमें आवश्यक है, अतः हमें प्रामाणिक साधनों द्वारा जितना भी हो परवर्ती काल की उत्पत्ति ही सचित करती हैं। ऐसी स्थिति में हमें सके प्रकाश में लाना अभीष्ट है। ओसवाल जाति में जिन-जिन द्विसहस्राब्दी से पूर्व की घटना मानने का मोह त्यागकर वास्तविक गोत्रों का इतिवृत्त प्रचुर और प्रामाणिक उपलब्ध है, उनमें से अपनी रुचि के अनुसार संग्रह कर प्रकाश में लाने का सत्प्रयत्न सतह पर आने के लिए प्रामाणिकता की ओर ध्यान देना चाहिए। होना चाहिए। ऐसे गोत्रों में बोथरा-बच्छावत, नाहटा-बाफणा, भगवान महावीर के समय में हर जाति के लोग जैन होते थे, रांका-सेठ, मालू, दूगड़, नाहर आदि अनेक इतिहास हाथ में लिए सर्वव्यापक जैनधर्म को तलवार के बल पर नष्ट किया गया, जा सकते हैं। यहाँ राठौड़-राष्ट्रकूट वंश से उद्भूत छाजहड़वंश का दक्षिण भारत का इतिहास एवं शिल्प इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इतिहास दिया जा रहा है। जैनाचार्यों ने हमें समाज-व्यवस्था दी जिससे आज हम उनके उपकारों से जैन हैं, अपने प्रयत्न से नहीं। सर्वप्रथम आज से ठीक पाँच सौ वर्ष पूर्व लिखित सचित्र स्वर्ण-रौप्याक्षरी संस्कृत के ४८ श्लोकों में लिखित छाजहड़ राय बहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्री पूरणचंद नाहर वंश की प्रशस्ति जो खरतरगच्छ की वेगड़ शाखा से संबंधित है, आदि इतिहासविदों की राय मानकर हमें प्रामाणिक इतिहास का उसे यहाँ सानुवाद उद्धृत करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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