Book Title: Buddhiprabha 1964 01 SrNo 51
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 53
________________ संसार और सन्यासको दो पहलू M बुद्धिसागरमारजी [ सद्गतके अप्रतिम ग्रंथ कर्मयोगकी कुछ झांकियां -संपादक ] द्रव्य, क्षेत्र, काल | । यदि मुझे शुरूमें ही पता । मतलब क्या है ? वह और भावसे, और भिन्न भिन्न अवस्थाके । लगता तो मैं अपना कई कौनोंसे उनका सापेक्षत्व शोचना संयोगों में हर इन्सानको कमयोग कभी न लिखता। चाहिये। जो कार्य अपना अपना कार्य ___ यह ग्रंथ पढ़कर मैं आवश्यक समझा नियत रहता है। जैसे बड़ा खुश जाता है उस कार्यकी कि संसार में जो व्यय हुआ हूँ चारों ओरसे जांच हार और धर्मका कार्य तांच करनी चाहिये, -लोकमान्य द्रव्य, क्षेत्र, काल परन् कईवार ऐसा आदिकी अपेक्षासे करना। बालगगाधर तिलक होता है कि कर्तव्यके पड़ता है वह सन्यास अवस्थामें अज्ञानसे जो अपना जरूरी कर्नव्य है छोड़ना पड़ता है। बिन जरूरी बन जाता है और जो, जिस कार्य करनेसे लौकिक और फिजूल कार्य है वह जरूरी बना रहता लोकोत्तर दृष्टिसे अपना और दूसरोंका है। जो जो आवश्यक क्रियाओंका सविशेष लाभ हो और अल्प हानि सम्यग्ज्ञान होता है और वे क्रियाएं हो ऐसे कार्य करने में विवेक दृष्टि, करने में जो हेतुओंकी जरूरत पड़ती तरतमता, कार्यको निर्दोषता और है उन हेतुओंका आलंबन लिया जाता कार्यकी आवश्यकता समझनी चाहिये । है । आवश्यक क्रियाओंका ज्ञान होनेसे जो लक्ष्यके लिये जो कार्य करता है आरमा अपने आपका गवाह बनकर बह कार्य करने में लाभ और नुकसान उन क्रियाओंमें बाझ व्यवहारसे प्रवृत्ति - वगैरह अनेक कौनोंसे विवेक करना करता है। जिस कार्य करना है उस ! पाहिये। कोई खास कार्य करनेका कार्यसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और

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