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(५३)
॥ दोहा ॥ ॥ त्याग न कर संग्रह करूं । विषय वचन जिम थाहार ॥ तुलसीए मुज पतितकें। वारवार धिक्कार ॥ ११॥ राग शेष दो बीज है। कर्मबंध फल देत ॥ इनकी फांसी में बंध्यो। बूटुं नहीं अचेत ॥ १२॥ रतन बंध्यो गाडी विषे । नाण बिप्यो घनमोदि । सिंघ पिंजरामें दीयो । जोर चले कबु नांहिं ॥१३॥ बुरो बुरो सबको कहे। बुरोन दीसे कोय ॥ जो घट शोधुं आपनो । तो मोसुं बुरो न कोय ॥ १४ ॥ का मी कपटी लालची। कठण लोहको दाम ॥ तुम पा रस परसंगथी। सुवरन था\ स्वाम ॥ १५॥
॥ श्लोक ॥ ॥ मैं जपहीन हुँ तपहीन हुँ।प्रनु हीन संवर स मगतं ॥ हे दयाल कपाल करुणानिधि । आयो तुम शरणागतं ॥ प्रजु आयो तुम शरणागतं ॥ १६ ॥
॥दोहा॥ ॥ नहीं विद्या नही बचन बल । नहीं धीरज गु न ग्यान ॥ तुलसीदासगरीबकी। पत राखो जगवान ॥ १७॥ विषय कषाय अनादिको। नरियो रोग थ गाध ॥ वैद्यराज गुरु शरनथी । पालं चित्त समाध ॥
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