Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ २ : भिक्षु विचार दर्शन लिया और पैंतालीस वर्ष तर्क धर्म-प्रचार का काम किया। इस काल में महाराजों से उनका सम्बन्ध क्वचित् ही रहा । " “बिंबसार राजा ने बुद्ध का बड़ा सम्मान किया और उसे वेणुवन दान में दिया, आदि जो कथाएं विनय - महावग्ग में हैं, वे बिल्कुल कल्पित जान पड़ती हैं । कारण, सुत्तपिटक में उनके लिए कोई आधार नहीं मिलता । बिंबसार राजा उदार था और वह सब पन्थों के श्रमणों से समान व्यवहार करता था। इस दशा में उसने यदि बुद्ध तथा उनके संघ को अपने वेणुवन में रहने की अनुमति दी हो, तो इसमें कोई विशेषता नहीं ।" " निशीथ सूत्र का पाठ भी शायद इसी दिशा की ओर संकेत करता है । ' पंडित बेचरदासजी का मत है- “दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर और उनके उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी तक ही जैन मुनियों का यथोपदिष्ट आचार रहा, उनके बाद ही जान पड़ता है कि बुद्ध देव के अतिशत लोकप्रिय मध्यम मार्ग का उन पर प्रभाव पड़ने लगा। शुरू-शुरू में तो शायद जैन-धर्म के प्रसार की भावना से ही वे बौद्ध साधुओं जैसी आचार की छूट लेते होंगे, परन्तु पीछे उसका उन्हें अभ्यास हो गया। इस प्रकार एक सदभिप्राय से भी उक्त शिथिलता बढ़ती गई जो आगे चलकर चैत्यवास में परिणत हो गई।३ नाथूराम प्रेमी ने भी राजाओं द्वारा प्राप्त प्रतिष्ठा को चारित्र - शिथिलता का एक कारण माना है। उन्होंने लिखा है- "यह कहना तो कठिन है कि किसी समय सब-के-सब साधु आगमोपदिष्ट आचारों का पूर्णरूप से पालन करते होंगे; फिर भी शुरू-शुरू में दोनों ही शाखाओं के साधुओं में आगमोक्त आचारों के पालन का अधिक से अधिक आग्रहं था । परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, साधु- संख्या बढ़ती गई और भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले विभिन्न देशों में फैलती गई, धनियों और राजाओं द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा • पाती गई, त्यों-त्यों उसमें शिथिलता आती गई और दोनों ही सम्प्रदायों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या बढ़ती गई।”* १. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ. ६५-६६ । २. निशीथ उद्देशक ४ : जे भिक्खू - १-३ रायं अतीकरेइ, अच्चीकरेइ, अत्थीकरेइ ४-६ रायारक्खियं, ७-६ नगररक्खियं, १०-१२ निगमारक्खियं, १३-१५ १६-१८ सव्वारक्खियं अत्तीकरेइ, अच्चीकरेइ, अत्थीकरेइ ।. देसारक्खियं, ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३५१. ४. वही, पृ. ३५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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