Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग चाहिये भेदविज्ञान भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ ( समयसार कलश - १३१) अर्थ - जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेद विज्ञान से सिद्ध हुए हैं; और जो कोई बंधे हैं वे उसी के ( भेदविज्ञान के) अभाव से ही बंधे हैं। आचार्य श्री यह भी बतलाते है कि भेद विज्ञान कहाँ तक भाना - भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ ( समयसार कलश - १३० ) अर्थ - यह भेद विज्ञान अच्छिन्न धारा से (जिसमें विच्छेद न पड़े ऐसे अखण्ड प्रवाह रूप से) तबतक भाना चाहिये जबतक ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान, ज्ञान में ही (अपने स्वरूप में ही) स्थिर न हो जावे । उपर्युक्त दोनों कलशों द्वारा मोक्षमार्ग में भेदविज्ञान की अनिवार्यता एवं उपयोगिता, स्पष्टतया सिद्ध होती है। आत्मार्थी को यह समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि वह भेद विज्ञान क्या है और उसके लिए किस प्रकार उसका प्रयोग किया जावे ? अतः उक्त विषय का विवेचन संक्षेप से निम्नप्रकार हैPage Navigation
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