Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ २३ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग मिथ्या श्रद्धा अनादि की कैसे ? प्रश्न - जब श्रद्धा एवं ज्ञान का परिणमन एक साथ होता है, तो, विपरीत मान्यता सहित श्रद्धा की पर्याय का जन्म कैसे हो जावेगा? उत्तर - जब द्रव्य और गुण, त्रिकाल शुद्ध रहते हैं तो, पर्याय के विपरीत कार्य का कर्ता द्रव्य अथवा गुण तो हो नहीं सकता और ज्ञान में विपरीतता होती नहीं; फिर भी विपरीत मान्यता वाली पर्याय का उत्पाद तो हुआ ही है। अत: उसका कारण खोजना चाहिये। प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येक पर्याय, द्रव्य से ही उठती है अर्थात् उत्पाद होता है और व्यय होने के पश्चात् द्रव्य में ही समा जाती है अर्थात् पारिणामिक रूप हो जाती है; लेकिन पर्याय में होने वाली विपरीतता न तो द्रव्य में से आती है और न व्यय के साथ द्रव्य में जाती है वरन् पर्याय के व्यय के साथ ही विपरीतता का भी व्यय हो जाता है। विपरीत मान्यता रहित मात्र पर्याय, द्रव्य में समा जाती है। प्रश्न - विपरीत मान्यता तो श्रृंखलाबद्ध अनादि से चली आ रही है, फिर उपर्युक्त कथन कैसे सिद्ध होगा ? उत्तर – कोई विपरीतता नहीं है। आत्मा के अनन्तगुणों में, ज्ञान की असाधारणता तो स्व-पर-प्रकाशक स्वभाव के कारण है, क्योंकि वह स्वभाव किसी गुण में नहीं मिलता। इसी प्रकार श्रद्धा गुण की भी ऐसी असाधारणता है कि वह नर-नारकादि पर्याय बदल जाने अर्थात् गति परिवर्तन हो जाने पर भी, पर्याय के साथ, उसका नाश नहीं होता स्वर्ग-नरकादि में जाने पर भी वह अक्षुण्ण बनी रहती है। यह सामर्थ्य अन्य गुणों में नहीं है। जैसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरकर नरक भी चला जावे तो भी उसकी श्रद्धा तो अक्षुण्ण बनी रहती है। लेकिन

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30