Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ - भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग विकारी भाव संयोगी भाव अथवा ज्ञेय मात्र को अपना मानना छोड़ना, यही है विकार की उत्पत्ति रोकने का वास्तविक उपाय। पर को स्व जानने की भूल ज्ञान क्यों करता है ? प्रश्न – ज्ञान तो आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है, वह पर को स्व के रूप में कैसे जानने लगती है ? उत्तर - श्रद्धा से निरपेक्ष रहकर ज्ञान के परिणमन को देखें तो उसका उत्पाद तो, स्व एवं पर को जैसे हैं, वैसे ही जानते हुए होता है; वह पर को स्व के रूप में जानने की भूल नहीं करता। लेकिन तत्समय ही श्रद्धा गुण का श्रृंखलाबद्ध विपरीत परिणमन पर को स्व के रूप में मानता हुआ उत्पन्न हुआ और उसी • समय ज्ञान पर्याय, उस को जानती हुई उत्पन्न हुई। इस प्रकार श्रद्धागुण के विपरीत परिणमन का प्रकाशन मात्र ज्ञान द्वारा हुआ। क्योंकि प्रत्येक गुण के कार्यों का प्रकाशन तो ज्ञान द्वारा ही होता है। द्रव्य में ज्ञान अभेद होने से, श्रद्धा द्वारा की गई विपरीतता को, ज्ञान आत्मा की विपरीतता के रूप में परिचय देता है। इस प्रकार आत्मा अज्ञानीमिथ्यादृष्टि कहा जाता है। पर को स्व के रूप में मानने की भूल करने का दोषी (अपराधी) तो श्रद्धा गुण की पर्याय है, ज्ञान का दोष नहीं है; फिर भी परिणमन अभेद होने से पर को स्व जानने का अपराधी ज्ञान को भी कह दिया जाता है। . उपर्युक्त स्थिति समझने का लाभ यह है कि जिसको सिद्ध बनना हो उसको, संसार का मूल कारण (वास्तविक कारण) ज्ञान को नहीं मान कर, मिथ्या मान्यता (मिथ्याश्रद्धा) को मानना चाहिये और जैसे भी बन सके, उसका ही अभाव करना चाहिये।

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