Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग स्वमुखापेक्षी रहते हुए ही ज्ञान होता है। इससे स्पष्ट है कि वास्तव में ज्ञान स्वयं ज्ञान पर्याय को जानता है अर्थात् स्वयं की योग्यता से परिणत ज्ञेयों के आकार रूप परिणत अपनी ज्ञानपर्याय को ही जानता है। जैसे नेत्र के मध्य की काली टीकी (लेन्स) में द्रश्य पदार्थों के आकार प्रतिबिम्बित होते हैं, उन आकारों को ही नेत्र देखता है, पर पदार्थों को नहीं; क्योंकि पदार्थ नेत्र तक आते नहीं और नेत्र भी पदार्थ तक जाते नहीं और अगर काली टीकी (लेन्स) के ऊपर मोतियाबिन्दु आजावेतो, पदार्थों का प्रतिबिम्ब लेन्स पर आता नहीं फलत: पदार्थों का देखना भी नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञेयों का जानना भी समझ लेना। इतना ही नहीं, वरन् जिन ज्ञेयों का ज्ञान होता है, उनमें वर्तने वाली किसी प्रकार की विकृति भी ज्ञान में नहीं आती; जानते हुए भी ज्ञायक तो निर्विकारी-शुद्ध ही बना रहता है। साथ ही ज्ञान में ज्ञात घटनाएँ वर्षों के अन्तराल के पश्चात् भी स्मरण करने पर वर्तमानवत् प्रत्यक्ष तो हो जाती हैं लेकिन विकृतियों का अंश, ज्ञान के साथ नहीं आता। और अनेक वर्षों में उपार्जित अगनित पुस्तकों आदि अनेक विषयों का ज्ञान, आत्मा में रहते हुए भी उसका वजन नहीं होता तथा वर्षों पुरानी घटना स्मरण करते ही प्रत्यक्ष हो जाती है, पुरानी होने से प्रत्यक्ष होने में समय नहीं चाहिये अर्थात् १० वर्ष पुरानी घटना को १० सेकण्ड एवं १ घंटा पहिले की को १ सेकण्ड लगती हो, ऐसा भी नहीं है। इन सब कारणों से ज्ञायक (आत्मा) का अमूर्तिकपने के साथ महान् सामर्थ्य भी सिद्ध होता है; यह तो अज्ञानी के एक समयवर्ती बर्हिलक्ष्यी इन्द्रियाधीन ज्ञान पर्याय की सामर्थ्य है। यही ज्ञान स्वलक्ष्यी होकर जब परिणमता है तो अतीन्द्रियता पूर्वक ज्ञायक को जानता है, वह ज्ञान पूर्ण विकसित होने एवं लोकालोक के ज्ञेयों के आकार परिणत अपनी पर्याय को

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