Book Title: Bhav evam Manovikar
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 4
________________ प्राण-नाशक कष्ट भी देता है तो भी वे उस पर क्रोधित नहीं होते, वे उसको शुभ आशीर्वाद ही देते हैं। रात-दिन स्व-कल्याण, पर-उपकार करना जिनका कार्य होता है । वे उत्तम पुरुष कहलाते हैं। दूसरी श्रेणी के मनुष्य सज्जन होते हैं । उनके हृदय में दूसरों के लिये सद्भावना होती है । दूसरों की उन्नति देखकर जिन्हें हर्ष होता है, किन्तु बोलने में साफ-साफ सत्य कह देते हैं। वह बात यदि किसी को अप्रिय लगती है तो लगे, उन्हें चिन्ता नहीं होती। मीठा बोलकर दूसरों को प्रसन्न करना, चापलूसी, खुशामदी वचन करने की जिन्हें आदत नहीं होती। वे बाहर से कठोर प्रतीत होते हैं, सरस नहीं दिखाई देते। स्वार्थ-साधन के लिये अन्य व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचाते, परन्तु स्वार्थ का घात करके जो परोपकार भी नहीं करते, यानी-जिस कार्य में अपने को हानि न हो ऐसा परोपकार का कार्य कर देते हैं। ऐसे पुरुष मध्यम कहलाते हैं। तीसरी श्रेणी के मनुष्य भीतरी दुष्ट होते हैं। उनका बाहरी व्यवहार मीठा होता है। वे बहुत मीठा बोलते हैं। सभ्य भाषा में दूसरों का मन अपनी ओर खींच लेते हैं, जिनके शारीरिक आचरण में भी कठोरता नहीं दिखाई देती, बहुत शिष्ट-सज्जन प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका हृदय मीठा नहीं होता । उनका हृदय काला होता है । मन में दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना बनी रहती है। दूसरों की हानि या पतन से जिन्हें हर्ष होता है। स्वार्थ-साधन के लिये जिन्हें अन्य जीवों को कष्ट देने में भी संकोच नहीं होता, "मुख में राम बगल में छुरा" आदि उपाधियां जिन पर चरितार्थ होती हैं। ऐसे मनुष्य दुष्ट कहे जाते हैं। चौथी श्रेणी के मनुष्यों का बाहरी और भीतरी बर्ताव कठोर होता है। उनका मन भी काला होता है और उनके वचन भी कड़ वे होते हैं । जिनकी आकृति भी भयानक होती है, जिनको देखते ही जानवरों तक को डर लगता है। जो किसी का उपकार करना तो जानते ही नहीं । दूसरों को हानि पहुंचाने के लिये यदि उन्हें अपनी भी कुछ हानि करनी पड़े तो भी वे अच्छा समझते हैं। दूसरों की हानि होते देखकर या सुनकर जिनको बहुत हर्ष होता है, जिन्हें मारना-कूटना, गाली-गलौच देना, क्लेश करना, भय उपजाना, शोर मचाना, अन्य का अपमान करना रात-दिन प्रिय मालूम होता है । ऐसे लोग महादुष्ट या अधम कहे जाते हैं । इसी तरह की मिलती-जुलती श्रेणियाँ पशुओं में भी होती हैं । गाय आदि अनेक पशु-पक्षी ऐसे होते हैं जो किसी अन्य जीव को कष्ट नहीं देते । स्वयं कष्ट सह कर लोक-कल्याण के लिये अमृत जैसा गुणकारी दूध देते हैं। हिरण, कबूतर आदि निरामिषभोजी (मांस न खाने वाले) भोले जीव ऐसे हैं जो किसी को कष्ट तो नहीं देते किन्तु किसी का उपकार भी नहीं करते । बगुला, सारस आदि ऐसे जीव हैं जो बाहर से उज्ज्वल साधु जैसे दीखते हैं। एक टांग उठाकर ध्यानी साधु की तरह खड़े हो जाते हैं, परन्तु भीतर से इतने काले होते हैं कि मछली नजर आते ही झट दबोच लेते हैं। संसार में भोजन के लिये असंख्य पदार्थ हैं किन्तु वे मछलियां पकड़ कर ही खाते हैं। कौवा, मगर, काला सर्प, भेडिया, तेंदुआ, चीता आदि अनेक ऐसे जानवर हैं जो बाहर से भी भयानक एवं काले हैं और जिनका हृदय भी काला होता है। सदा बुरे पदार्थ खाना, दुष्टता से दूसरे जीवों को दुख देना जिनका स्वभाव है, कभी किसी का भला करना तो जिनको आता ही नहीं। परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अच्छे संस्कारों में आ जाए तो महान् स्व-पर उपकारी साधु बन जाए, जगत् के कल्याण के लिये सभी संभव कार्य कर डाले और यदि वह कुसंस्कारों में पड़ कर दुष्ट प्रकृति धारण कर ले तो ऐसा महादुर्जन कुकर्मी बन जाता है कि संसार में उसके समान भयानक जीव भी न मिल सके। मनुष्य सातवें नरक तो जा ही सकता है किन्तु उसके परिणाम इतने भयानक, दुष्ट, उग्र हो जाते हैं कि उस समय सातवें नरक की आयु बांधने के भावों से भी अधिक बुरे भाव होते हैं जिनसे कि किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता, क्योंकि संसार में सातवें नरक से भी बढ़कर दुःखदायी कोई स्थान नहीं पाया जाता। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह स्वभावतः परिवार तथा समाज के साथ रहा करता है। अकेला-दुकेला रह कर उसका निर्वाह नहीं हो सकता । मनुष्यों में जब तक आपस का सहयोग व सहानुभूति न हो तब तक उनका जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता । अतः जो मनुष्य अति दुष्ट प्रकृति के महाभयानक प्राणी माने जाते हैं उनका निर्वाह भी अकेले नहीं होता। उन्हें भी कुछ न कुछ अपना समाज (समुदाय) बनाना ही पड़ता है, तभी वे जीवित रह सकते हैं । सामाजिक रूप में रहने के लिये मनुष्य के हृदय में सहानुभूति (हमदर्दी) का होना आवश्यक है । मनुष्य यदि अपने समाज के जाति भाइयों का सुख-दुःख अनुभव न करे, उनके सुख-दुःख में भाग न बंटावे तो वह समाज के रूप में कदापि नहीं रह सकता। वैसे तो यह बात अतिदुष्ट पशु-पक्षियों में भी पाई जाती है। वे भी अपना झुण्ड बना कर रहते हैं, परन्तु वे अकेले रह कर भी अपना जीवन बिता लेते हैं । सिंह प्रायः अकेला ही रहता है, परन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। तो हां, जिस सहानुभूति गुण के कारण मनुष्य समाज के रूप में रहता है उस सहानुभूति की माता (उत्पन्न करने वाली) है 'अनुकम्पा', जिसका प्रसिद्ध नाम दया है । दया गुण के कारण मनुष्य का हृदय दूसरे का दुःख देखकर पिघल जाता है, व्याकुल हो जाता आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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