Book Title: Bhav evam Manovikar Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 9
________________ क्रोध कषाय बड़ी दुर्द्धर्ष कषाय है।' क्रोध के कारण मनुष्य का चित्त ठिकाने नहीं रहता । प्रलय-सी मचा देना चाहता है, परन्तु लड़-झगड़ कर मार-कूट कर क्रोध का नशा भी उतर जाता है । अपने आप शान्ति आ जाती है। अभिमान भी अपनी अकड़ दिखला कर, दूसरे को नीचा दिखा कर तथा किसी का अपमान कर देने के बाद शान्त हो जाता है। अभिमानी को बड़प्पन दे देने पर अभिमानी पुरुष प्रसन्न हो जाता है। मायाचारी कपटी पुरुष जब अपने छल-कपट में सफल हो जाता है, धोखा-धड़ी के प्रपंच से किसी की हानि तथा अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेता है तब उसको भी शान्ति मिल जाती है। परन्तु संसार में एक चीज ऐसी भी है जिसकी कोई भी सीमा नहीं, उसका नाम है लोभ । लोभ की सीमा कभी भी समाप्त नहीं होती। जितना यह जगत् है ऐसे अनन्त जगत् एक मनुष्य के लोभ में पूरे नहीं हो सकते। इसी बात को श्री गुणभद्राचार्य ने अपने 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ में निम्नलिखित श्लोक द्वारा प्रगट किया है आशागतः प्रतिप्राणि यत्र विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ।। अर्थात्, प्रत्येक प्राणी का लोभ रूपी गड्ढा इतना गहरा है जिसमें यह विशाल जगत् एक परमाणु के बराबर है, यानी-प्रत्येक प्राणी अनन्त जगत् को हड़प कर जाने का लोभ अपने हृदय में रखता है। ऐसी दशा में किस-किस जीव का लोभ शान्त करने के लिए क्याक्या कितना भाग (हिस्सा) आ सकता है । यानी--एक जीव का हिस्सा भी पूरा नहीं हो सकता, इस कारण हमारी विषय भोगों की तृष्णा (इच्छा) व्यर्थ है। इसी लोभ के कारण प्रत्येक जीव संचयशील बना हुआ है । चूहे अपने बिलों में अन्न एकत्र कर लेते हैं । चींटियां अपने बिल में एक-एक कण चुनकर इतना भोजन एकत्र कर लेती हैं कि वर्षा के दिनों में यदि उन्हें बाहर आने का अवसर न मिले तो वे भी भूखी न रहें । वृक्षों की जड़ें भी उसी ओर फैलती हैं जिस ओर उनको खाने-पीने का खाद-पानी मिलता है। एक कहावत प्रचलित है कि पेड़ की जड़ें भी धन की ओर जाती हैं। जब चींटी पेड़ जैसे जीवों की लोभ तृष्णा का यह हाल है तब मनुष्य के लोभ का तो क्या कहना ! भिखारी भीख मांगने निकलता है, उसको पेट भर भोजन मिल जाता है, फिर भी वह भीख मांगना बन्द नहीं करता। इसी कारण हजारों रुपये बैंक में जमा रखने वाले भिखारी भी मिल सकते हैं। दिल्ली में ५० भिखारियों पर भीख मांगने के अपराध में २०० रुपये जुर्माना किया गया। जुर्माने की रकम भिखारियों ने वहीं जमा कर दी। एक भिखारिणी के पास बैंक की पासबुक निकली जिसमें १०० रुपये जमा थे। उसकी जमानत देने उसका पुत्र आया जो गजेटेड आफीसर था। सरकारी आफीसर की माता भी धन-संचय के विचार से भीख मांगने लगी। __ छोटा अबोध बच्चा रोता है। उसके हाथ में पैसा पकड़ा दीजिये । पैसे का मूल्य न समझने वाला वह शिशु भी पैसा पाकर चप रह जायेगा और पैसे को मुट्ठी में इतने जोर से दबायेगा कि फिर छोड़ने का नाम भी न लेगा। इस तरह संचय-शीलता बचपन से ही प्रारम्भ हो जाती है। पैसा ज्यों-ज्यों मिलता जाता है त्यों-त्यों लोभ की रस्सी भी रबड़ की तरह बढ़ती चली जाती है। रबड़ का तनाव तो कहीं पर रुक जाता है परन्तु लोभ का तनाव कहीं पर समाप्त नहीं होता। एक दरिद्र ब्राह्मण की कन्या का विवाह था। किन्तु उस गरीब के पास कन्यादान के समय कुछ भी देने को न था, तब बहुत कुछ सोच-विचार कर वह राजा के पास गया और नम्रता के साथ उसने राजा से कहा कि मुझे अपनी पुत्री के कन्यादान के समय वर को देने के लिए तीन माशा सोना चाहिए। राजा ने ब्राह्मण की छोटी-सी मांग देखकर अपने खजांची के नाम पर्चा लिखकर ब्राह्मण को दे दिया। पर्चे में राजा ने लिख दिया 'यह ब्राह्मण जो कुछ मांगे सो इसको दे देना।' पर्चा लेकर ब्राह्मण खजांची के पास गया । मार्ग में ब्राह्मण ने सोचा कि राजा ने इसमें देने की कुछ सीमा तो लिखी नहीं है, अब लेना मेरी इच्छा पर निर्भर है । मैं जितना भी मांगूंगा, खजांची उतना दे देगा। तो मैं तीन माशा सोना ही क्यों मांग ? ३००) रुपये क्यों न मागं, परन्तु तीन हजार रुपये ठीक रहेंगे जिससे विवाह धूम-धाम से हो जाए। फिर उसको लोभ ने सताया । तब उसने विचार किया कि जब मांगने ही चला हूं तब तीन लाख रुपये ही क्यों न मांग लूं। इस पर भी उसका लोभ समाप्त न हुआ। उसने १. "आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार प्रसिद्ध कषाय हैं।" -~-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ३३ अमृत-कण ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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