Book Title: Bhav evam Manovikar
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 13
________________ स्वच्छ नहीं होता । पापवासना जिसके हृदय में बनी रहती है । संसार में प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि पापी सदा भयभीत रहता है। वह लुक-छिप कर हिंसा, कत्ल, चोरी, व्यभिचार, बेईमानी करता है । अत: उसका हृदय काँपता रहता है कि कहीं भेद खुल गया तो इसी भव में फांसी, जेल आदि का दण्ड भुगतना पड़ेगा। कहीं परभव में भी दुर्गति न सहनी पड़े, कहीं हंटरों की मार न खानी पड़े । पापकर्म जो बांधा है उससे कोई आपत्ति न आ जाए । इत्यादि सातों तरह के भय पापी को सदा डराते रहते हैं। धर्मात्मा का हृदय शुद्ध स्वच्छ रहता है। वह निश्चित होकर सर्वत्र घूमता है। उसको पुलिस, सेना आदि का कुछ भी भय नहीं होता । सत्य व्यवहार के कारण वह सदा निर्भय रहता है। धर्म-कार्य करते रहने से संसार में उसका कोई शत्रु नहीं होता। सभी जीव उसके मित्र होते हैं। वह पुण्य कर्म उपार्जन करता है । अतः उसे न इस लोक में कोई भय होता है, न वह मरने से डरता है क्योंकि उसे निश्चय होता है कि मरने के पश्चात् मुझे नरक आदि में न जाना पड़ेगा। इस तरह उसे अरक्षा, अकस्मात्, वेदना आदि कोई भी भय नहीं होता। जिस मनुष्य को आत्म श्रद्धा हो जाती है, उस मनुष्य को शरीर से ममता नहीं होती। वह तो इस शरीर को अपने लिये कुछ दिन तक का किराये का मकान समझता है । उसे तो अपने आत्मा की ओर ही लग्न होती है। उसको दृढ़ श्रद्धा होती है कि मेरी आत्मा अजर-अमर है, न वह कभी मरता है न जन्म लेता है । आत्मा को कोई शस्त्र न काट सकता है, न अग्नि जला सकती है, न पानी गला सकता है। जलना, कटना, गलना, सूखना आदि शरीर का होता है, सो मुझे कोई प्रयोजन नहीं। मेरे आत्मा में जिस कार्य से अशान्ति पैदा हो ऐसे राग, द्वेष, मोह, क्रोध, लोभ, हिंसा आदि मुझे न करना चाहिये। जैसी मैंने पहले भव में कर्मों की कमाई की है उसका वैसा फल मुझे अवश्य मिलेगा। यदि अपने अशुभ कर्म के फल में कुछ धन की हानि, शरीर का कष्ट, पुत्र आदि का मरण मुझे हो तो उस फल को शांत भाव से सह लेना चाहिये क्योंकि रोने-पीटने से वह दुःख कम न होगा, अधिक मालूम होगा और आतं ध्यान से आगे के लिये दुःखदायक बंध होगा। धन आदि से उसे मोह नहीं होता। इसलिए न उसको इस लोक का भय होता है, न परलोक का, न मरण का, न वेदना का, न अरक्षा का, न अगुप्ति का और न अकस्मात भय से वह डरता है। वह अपनी अजर-अमर आत्मा में तन्मय रहता है । इसलिए निर्भय बनने के लिये आत्मश्रद्धा तथा धर्म का आचरण करना चाहिए। शान्ति आत्मसुख का मार्ग ही शांति का मूल कारण है। इसीलिए महान् पुरुष संसार में रहते हुए भी हमेशा शांति की भावना किया करते हैं, जैसे कि भर्तृहरि संसार में रहते हुए इस प्रकार की भावना किया करते थे : पाणिः पात्र पवित्र भ्रमणपरिगतं भक्ष्यमक्षय्यमन्नम्, विस्तीण वस्त्रमाशा सुदिशकमलं तल्पमस्वल्पमु: । येषां निःसंगतांगी करणपरिणतिः स्वात्मसन्तोषिणस्ते, धन्याः संन्यस्त-दैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ।। वे ही प्रशंसा के भाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही कर्म की जड़ काट दी है--जो अपने हाथों के सिवा और किसी पात्र की आवश्यकता नहीं समझते, जो घूम-घूम कर भिक्षा का अन्न खाते हैं । जो दशों दिशाओं को ही वस्त्र समझ कर नग्न रहते हैं, जो सारो पृथ्वी को ही अपनी निर्मल शय्या समझते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है संसार का प्रत्येक जीव सुख जोर शान्ति चाहता है । दुःख और अशान्ति कोई भी जन्तु अपने लिये नहीं चाहता। परन्तु संसार में सुख-शान्ति है कहाँ ? प्रत्येक जीव किसी न किसी कारण से दुःखी पाया जाता है। जन्म, मरण, भूख, प्यास, रोग, अपमान, पीड़ा, भय, चिन्ता, द्वेष, घृणा, प्रिय-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि दुःख के कारणों में से अनेक कारण प्रत्येक जीव को लगे हुए हैं। इसी कारण प्रत्येक जीव किसी न किसी तरह व्याकुल है और व्याकुलता ही दुःख का मूल है। निराकुलता ही परम सुख है । अनन्त निराकुलता कर्मों के क्षय हो जाने पर प्राप्त होती है । इस मुक्ति के साधन तप, त्याग, संयम, सुखशान्ति के साधन हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व-राग, द्वेष, क्षोभ आदि विकृत भाव कर्मबन्ध के कारण हैं । ये ही विकृत भाव दुःख और अशान्ति के साधन हैं। ___ गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को परिवार के पालन-पोषण की चिन्ता रहती है । उस चिन्ता को कम करने के लिये वे धन-संचय परिग्रह एकत्र करने में लग जाते हैं । उस धन-परिग्रह का आर्जन तथा संचय करते हुए कभी किसी पर क्रोध, किसी के साथ मान, किसी से माया, लोभ आदि करने पड़ते हैं। उनसे ही मानसिक तथा शारीरिक दुःख होता है। परिग्रह त्यागी मुनिराज को अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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