Book Title: Bhav evam Manovikar
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 7
________________ जंगल में जाकर सुरीला बाजा बजाते हैं । बाजे का मधुर स्वर सुनने के लिये हिरण उधर चला आता है और शिकारी के हाथों में अपने कानों की इच्छा पूर्ण करते हुए फंस जाता है । __इस तरह एक-एक इन्द्रिय के दास हाथी, मछली, भौंरा, पतंगा और हिरण अपने आपको विपत्ति में डाल देते हैं तो पांचों इन्द्रियों का दास यह मनुष्य तो अनेक विपत्ति उठाता ही रहता है। मनुष्य जब यह देखता है कि इन्द्रियों के विषय-भोग धन के द्वारा प्राप्त होते हैं तो धन कमाने की आशा में बुरे से बुरे और कड़े से कड़े काम करने पर उतारू हो जाता है। देश विदेश में घूमना, आकाश में उड़ना, नदी नाले लांघना, समुद्र में यात्रा करना, पृथ्वी के नीचे खानों में घुसना, धनिक लोगों की गुलामी करना, चोरी करना, विश्वासघात करना, अनीति करना, डाका डालना, अत्याचार करना, हिंसा करना, व्यभिचार करना-कराना आदि सभी बुरे से बुरे कार्य मनुष्य रुपया-पैसा पाने की आशा में किया करता है। धन की आशा में सब किसी नीच, ऊच, दुराचारी, दुष्ट, निर्दय, अयोग्य पुरुष की चाकरी करने लगता है। एक कवि ने कहा है आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ।। जो मनुष्य आशा के चाकर बने हुए हैं, वे सारे संसार के चाकर हैं यानी धन की आशा दिखाकर कोई भी मनुष्य उन्हें अपना नौकर बना सकता है । और जो मनुष्य आशा को अपनी दासी बना लेते हैं यानी आशा को अपने वश में कर लेते हैं सारा संसार उनका दास बन जाता है। बड़े-बड़े धनिक सेठ, राजे, महाराजे, सम्राट, चक्रवर्ती आशा के चक्कर में पड़ कर सदा चिन्ताकूल बने रहते हैं। उन्हें अपने धन तथा राज्य को बढ़ाने की तथा उनको सुरक्षित रखने की चिन्ता लगी रहती है। उसी चिन्ता के कारण ये रात को निश्चिन्त होकर सो भी नहीं सकते । उनको सदा चोर-डाकुओं राजविप्लव, आक्रमण आदि का भय बना रहता है। भोजन भी सन्तोष से नहीं कर पाते। उन्हें उसमें भी विष आदि मिलने की आशंका बनी रहती है। इस तरह बड़ी सम्पत्ति और राज्य पाकर भी सूख से न खा पी सकते हैं, न आराम से सो सकते हैं। सदा कैदियों की तरह पहरेदारों के पहरे में बाहर आते-जाते हैं। इस तरह आशा तृष्णा का शिकार यह मनुष्य किसी भी तरह सुख-शांति नहीं पाता। दमी कारण एक कवि ने कहा है आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् । यथा संछिन्। कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला॥ 'कसी विषय की आशा बहुत दुःखदायक है, आशा छोड़ देना बहुत सुखदायक है । पिङ्गला ने जब अपने प्रियतम की आशा छोड़ दी तो उसने सुख की नींद ली। पिङ्गला नामक एक वेश्या थी। उसके एक प्रेमी ने एक बार पिङ्गला को एक स्थान पर मिलने का संकेत किया। पिङ्गला उस स्थान पर नियत समय पर पहुंच गई और अपने प्रेमी के आने की प्रतीक्षा करने लगी। अपने प्रेमी की आशा में बैठे-बैठे जब पिडला को बहत समय बीत गया और उसका प्रेमी नहीं आया, तब पिङ्गला के हृदय में विवेक जाग्रत हुआ कि मेरा सच्चा प्रियतम गे मेरा भगवान् है जो कि हृदय में सदा रह सकता है । यदि मैं अपने हृदय से बुरी वासनाओं के कूड़े को झाड़-बुहार कर निकाल फेंक तो प्यारा भगवान् सदा मेरे पास रहेगा । मैं उन दुराचारी स्वार्थी प्रेमियों की आशा में अपना जीवन क्यों खराब करू।। ऐसा विचार कर उसने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और कामवासना के प्रेमी अपने सब मित्रों की आशा छोड़कर, धन-भोगों की आशा छोड़ कर भगवान् की भक्ति में लग गई और बहुत आराम से रहने लगी। इसी प्रकार जो आशा के पाश में फंसे रहते हैं वे दुःखी बने रहते हैं। जो सब तरह की आशाओं को छोड़ कर अपने प्रियतम आत्मा में तन्मय हो जाते हैं वे परमसुखी हो जाते हैं। चक्रवर्ती सम्राटों को राज्य करते हुए विषय-भोगों में शांति और तप्ति नहीं मिली। जिस समय वे विषय-भोगों की आशा छोड़ कर घर-बार राज-पाट से सम्बन्ध तोड़कर साधु बन गये तब उनको शांति और सुख स्वयं अपने आत्मा में ही मिल गया। __ जिस तरह मनुष्य यदि अपने शरीर की छाया को पकड़ने दौड़े तो छाया हाथ नहीं आती, आगे-आगे भागती चली जाती है। यदि मनुष्य उसको पकड़ना छोड़कर अपने मार्ग पर चला चले तो वही छाया मनुष्य के पीछे स्वयं चलने लगती है। इसी तरह अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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