Book Title: Bhartiya Darshanik Chintan me Nihit Anekant Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf View full book textPage 2
________________ ८५ अपितु ऋषि ने यह भी कह दिया कि परम सत्ता को हम न सत् कह सकते हैं और न असत् । इस प्रकार वस्तुतत्त्व की बह-आयामिता और उसमें अपेक्षा भेद से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों की युगपद् उपस्थिति की स्वीकृति हमें वेद काल से ही मिलने लगती है। मात्र इतना ही नहीं ऋग्वेद का यह कथन-"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं (१/१६४/४६)" परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओं की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उनमें समन्वय करने का प्रयास ही तो है। इस प्रकार हमें अनैकान्तिक दृष्टि के अस्तित्व के प्रमाण ऋग्वेद के काल से ही मिलने लगते हैं। यह बात न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा अनैकान्तिक दार्शनिक दृष्टि की स्वीकृति की सूचक है अपितु इस सिद्धान्त की त्रैकालिक सत्यता और प्राचीनता की भी सूचक है। चाहे विद्वानों की दृष्टि में सप्तभंगी का विकास एक परवी घटना हो, किन्तु अनेकान्त तो उतना ही पुराना है जितना ऋग्वेद का यह अंश। ऋग्वैदिक ऋषियों के समक्ष सत्ता या परमतत्त्व के बहु-आयामी होने का पृष्ट खुला हुआ था और यही कारण है कि वे किसी ऐकान्तिक दृष्टि में आबद्ध होना नहीं चाहते थे। ऋग्वेद के दशम मण्डल का नासदीय सूक्त (१०/१२९/१) इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण है___ नासदासीनोसदासीत्तदानीं नासीद्रजो न व्योम परोयत् । सत्य तो यह है कि उस परमसत्ता को जो समस्त अस्तित्व के मूल में है, सत्, असत्, उभय या अनुभय – किसी एक कोटि में आबद्ध करके नहीं कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में उसके सम्बन्ध में जो भी कथन किया जा सकेगा वह भाषा की सीमितता के कारण सापेक्ष ही होगा निरपेक्ष नहीं) यही कारण है कि वैदिक ऋषि उस परमसत्ता या वस्तु तत्त्व को सत् या असत् नहीं कहना चाहता है, किन्तु प्रकारान्तर से वे उसे सत् भी कहते हैं- यथा- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं (१/१६४/४६) और असत् भी कहते हैं यथा- देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत (१०/७२/३)। इससे यही फलित होता है कि वैदिक ऋषि अनाग्रही अनेकान्त दृष्टि के ही सम्पोषक रहे हैं। औपनिषदिक साहित्य और अनेकान्तवाद न केवल वेदों में, अपितु उपनिषदों में भी इस अनेकान्तिक दृष्टि के उल्लेख के अनेकों संकेत उपलब्ध हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर परमसत्ता के बहुआयामी होने और उसमें परस्पर विरोधी कहे जाने वाले गुणधर्मों की उपस्थिति के सन्दर्भ मिलते हैं।जब हम उपनिषदों में अनेकान्तिकदृष्टि के सन्दर्भो की खोज करते हैं तो उनमें हमें निम्न तीन प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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