Book Title: Bhartiya Darshanik Chintan me Nihit Anekant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf
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९८ मत की पुष्टि में कूर्मपुराण, नारदपुराण, स्कन्दपुराण आदि से सन्दर्भ भी प्रस्तुत करते हैं यथा--
त एते भगवद्रूपं विधं सदसदात्कम् । - पृ० १११ चैतन्यापेक्षया प्रोक्तं व्योमादि सकलं जगत्। असत्यं सत्यरूपं तु कुम्भकुण्डाद्यपेक्षयो।। - पृ० ६३ ये सभी सन्दर्भ अनेकान्त के सम्पोषक हैं यह तो स्वत: सिद्ध है।
इसी प्रकार निम्बार्काचार्य ने भी अपनी ब्रह्मसूत्र की वेदान्त पारिजात सौरभ नामक टीका में तत्तुसमन्वयात् (१/१/४) की टीका करते हुए पृ. २ पर लिखा है----
सर्वभिन्नाभिन्नो भगवान् वासुदेवो विश्वात्मैव जिज्ञासा विषय इति।
शुद्धाद्वैत मत के संस्थापक आचार्य वल्लभ भी ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य (पृ. ११५) में लिखते हैं -
सर्ववादानवसरं नानावादानुरोधिच । अनन्तमूर्ति तद् ब्रह्म कूटस्थ चलमेवच ।।
विरुद्ध सर्वधर्माणां आश्रयं युक्त्यगोचरं । अर्थात् वह अनन्तमूर्ति ब्रह्म कूटस्थ भी है और चल (परिवर्तनशील) भी है, उसमें सभी वादों के लिए अवसर (स्थान) है, वह अनेक वादों का अनुरोधी है, सभी विरोधी धर्मों का आश्रय है और युक्ति से अगोचर है।
यहाँ रामानुजाचार्य जो बात ब्रह्म के सम्बन्ध में कह रहे हैं, प्रकारान्तर से अनेकान्तवादी जैनदर्शन तत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में कहता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल वेदान्त में भी अपित् ब्राह्मण परम्परा में मान्य छहों दर्शनों के दार्शनिक चिन्तन में अनेकान्तवादी दृष्टि अनुस्यूत है। श्रमण परम्परा का दार्शनिक चिन्तन और अनेकान्त
भारतीय दार्शनिक चिन्तन में श्रमण परम्परा के दर्शन न केवल प्राचीन हैं, अपितु वैचारिक उदारता अर्थात् अनेकान्त के सम्पोषक भी रहे हैं। वस्तुत: भारतीय श्रमण परम्परा का अस्तित्व औपनिषदिक काल से भी प्राचीन है, उपनिषदों में श्रमणधारा और वैदिकधारा का समन्वय देखा जा सकता है। उपनिषद्-काल में दार्शनिक चिन्तन की विविध धाराएँ अस्तित्व में आ गईं थीं, अत: उस युग के चिन्तकों के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि इनके एकांगी दृष्टिकोणों का निराकरण कर इनमें समन्वय किस प्रकार स्थापित किया जाये। इस सम्बन्ध में हमारे समक्ष तीन विचारक आते हैं- संजय वेलट्ठीपुत्त, गौतमबुद्ध और वर्द्धमान महावीर ।
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