Book Title: Bhartiya Darshanik Chintan me Nihit Anekant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 13
________________ ९६ वस्त्वनेकत्ववादाच्च न सन्दिग्धा ऽप्रमाणता । ज्ञानं संदिहाते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता ।। इहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम् । इसी अंश की टीका में पार्थसारथी मिश्र ने भी स्पष्टतः अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग किया है यथा ये चैकान्तिकं भेदमभेदं वाऽवयविनः समाश्रयन्ते तैरेवायमनेकांतवाद। ___ मात्र इतना ही नहीं, उसमें वस्तु को स्व-स्वरूप की अपेक्षा सत् पर स्वरूप की अपेक्षा असत् और उभयरूप से सदसत् रूप माना गया है यथा सर्वं हि वस्तु स्वरूपतः सद्रूपं पररूपतश्चासद्रूपं यथा घटो घटरूपेण सत् पटरूपेणऽसन्। - अभावप्रकरण टीका ___ यहाँ तो हमने कुछ ही सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं यदि भारतीय दर्शनों के मूलग्रन्थों और उनकी टीकाओं का सम्यक् परिशीलन किया जाये तो ऐसे अनेक तथ्य परिलक्षित होगें जो उन दर्शनों की पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकान्त दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। अनेकान्त एक अनुभूत्यात्मक सत्य है उसे नकारा नहीं जा सकता है। अन्तर मात्र उसके प्रस्तुतीकरण की शैली का होता है। वेदान्तदर्शन और अनेकान्तवाद __ भारतीय दर्शनों में वेदान्त दर्शन वस्तुत: एक दर्शन का नहीं, अपितु दर्शन समूह का वाचक है। ब्रह्मसूत्र को केन्द्र में रखकर जिन दर्शनों का विकास हआ वे सभी इस वर्ग में समाहित किये जाते हैं। इसके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैत आदि अनेक सम्प्रदाय हैं। नैकस्मिन्न संभवात् (ब्रह्मसूत्र २/२/३३) की व्याख्या करते हुए इन सभी दार्शनिकों ने जैन दर्शन के अनेकान्तवाद की समीक्षा की है। मैं यहाँ उनकी समीक्षा कितनी उचित है या अनुचित है इस चर्चा में नहीं जाना चाहता हूँ, क्योंकि उनमें से प्रत्येक ने कमोवेश रूप में शंकर का ही अनुसरण किया है। यहाँ मेरा प्रयोजन मात्र यह दिखाना है कि वे अपने मन्तव्यों की पुष्टि में किस प्रकार अनेकान्तवाद का सहारा लेते हैं। आचार्य शंकर को सष्टिकर्ता ईश्वर के प्रसंग में स्वयं ही प्रवृति- अप्रवृति रूप दो परस्पर विरोधी गुण स्वीकार है। ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य २/२/४ में वे स्वयं ही लिखते हैंईश्वरस्य तु सर्वज्ञत्वात्, सर्वशक्तिमत्वात् महामायत्वाच्च प्रवृत्यप्रवृती न विरूध्यते। पुन: माया को न ब्रह्म से पृथक् कहा जा सकता है और न अपृथक; क्योकि पृथक् मानने पर अद्वैत खण्डित होता है और अपृथक् मानने पर ब्रह्म माया के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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