Book Title: Bharatiya Sanskruti ka Vastavik Drushtikon Author(s): Mangaldev Shastri Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 4
________________ ५३४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय भारतीय संस्कृति की असांप्रदायिकता संस्कृत में प्राचीन काल से एक कहावत चली आ रही है कि : श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् । अर्थात् श्रुतियों और स्मृतियों में परस्पर विभिन्न मत पाये जाते हैं. यही बात मुनियों के विषय में भी ठीक है. इसका अभिप्राय यही है कि किसी भी सभ्य समाज में मतभेद और तन्मूलक सम्प्रदायों का भेद या बाहुल्य स्वाभाविक होता है. इसका मूल कारण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति और रुचि में भेद का होना ही है. कोई व्यक्ति स्वभाव से ही ज्ञान-प्रधान, कोई कर्म-प्रधान और कोई भक्ति या भावना-प्रधान होता है. फिर समय-भेद तथा देश-भेद से भी मनुष्यों की प्रवृत्तियों में भेद देखा जाता है. रेगिस्तान के शुष्क प्रदेश में रहने वालों के और बंगाल जैसे नमी प्रधान प्रदेश में रहने वालों के स्वभावों में अन्तर होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही कारणों से भारत वर्ष जैसे विशाल और प्राचीन परम्परा वाले देश में अनेकानेक सम्प्रदायों का होना बिल्कुल स्वाभाविक है. एक सीमा तक यह सम्प्रदाय-भेद स्वाभाविक होने के कारण व्यक्तियों की सत्प्रवृत्तियों के विकास का साधक होता है. यह तभी होता है जब कि उन विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों के सामने कोई ऐसा उच्चतर आदर्श होता है जो उन सबको परस्पर संगठित और सम्मिलित रहने की प्रेरणा दे सकता हो. परन्तु प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सांप्रदायिक नेताओं की स्वार्थ बुद्धि और धर्मान्धता या असहिष्णुता के कारण सम्प्रदायों का वातावरण दूषित, संघर्षमय और विषाक्त हो जाता है. उस दशा में सम्प्रदाय-भेद अपने अनुयायियों के तथा देश के लिये भी अत्यन्त हानिकारक आर घातक सिद्ध होता है. भारतीय संस्कृति की आंतरिक धारा में चिरन्तन से सहिष्णुता की भावना का प्रवाह चला आया है. तो भी, भारतवर्ष में सम्प्रदायों का इतिहास बहुत कुछ उपर्युक्त दोषों से युक्त हो रहा है. आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थों के कारण और कुछ अंशों में धर्मान्धता के कारण भी अपने-अपने नेताओं द्वारा सम्प्रदायों का और स्वभावतः शांति-प्रधान, पर भोली-भाली और मूर्ख, जनता का पर्याप्त दुरुपयोग किया गया है. साम्प्रदायिक वैमनस्य और अत्याचार का उल्लेख करने पर आजकल तत्काल हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य या पिछली शताब्दियों में दक्षिण भारत में ईसाइयों द्वारा हिन्दू जनता पर किये आत्याचार सामने आ जाते हैं. यह सब तो निस्सन्देह ठीक ही है. पर साम्प्रदायिक असहिष्णुता और अत्याचार का विशुद्ध भारतीय सम्प्रदायों में अभाव रहा है, यह न समझ लेना चाहिए. पौराणिक तथा धर्मशास्त्रीय संस्कृत साहित्य में वणित उन व्यक्तिगत अथवा सामूहिक अत्याचारों के आख्यानों या विधानों को, जो वास्तव में साम्प्रदायिक असहिष्णुता-मूलक या उसके ब्याज में राजनीतिक-मूलक थे, जाने दीजिए. हम उसका उल्लेख यहाँ नहीं करेंगे. यहाँ कुछ अन्य निदर्शनों को देना पर्याप्त होगा. उदाहरणार्थः 'श्रमण-ब्राह्मणम्' (व्याकरण-महाभाष्य २.४.६) पद के आधार पर श्रमणों (अर्थात जैन-बौद्धों) और ब्राह्मणों में सर्प और नकुल जैसी शत्रुता का उल्लेख किया जा सकता है. ईसवी शतियों के प्रारम्भिक काल के आसपास इस शत्रुता ने भारतवर्ष के राजनीतिक तथा धार्मिक वातावरण में जो हलचल मचा रखी थी, वह इतिहासकार से छिपी नहीं है. १. उदाहरणार्थ, स्कन्द-पुराणान्तर्गत सूतसंहिता में शैव संप्रदाय के विरोधियों के बाधन और शिरश्छेदन का स्पष्टतया विधान किया है, जैसे शिवयात्रापराणां तु बाधकानां तु बाधनम् | शिवभक्तिरिति प्रोक्ता"|| भस्मसाधन निष्ठानां दृषकस्य "छेदनं शिरसः ॥ (सूतसंहिता ४।२६/२६-३२) । रामायण में भगवान् रामचन्द्र द्वारा शम्बक (शद्र) का वध प्रसिद्ध है। वेद सुनने मात्र के अपराध के लिए शद्र के कानों में रांगा पिलाने की चर्चा प्रसिद्ध ही है. ao BEISRINESININ SINEERIMISENISISEISENÄSENE Tomatml ely.orgPage Navigation
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