Book Title: Bharatiya Sanskruti aur Jain Dharm Sadhna Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 3
________________ की गई है, जिस देव समाज का अनुकरण करने की १४ है। वह 'धर्म' धार्मिक बाह्य क्रियाकाण्डों की अपेक्षा तथा उससे सख्य-भाव 'मैत्री' स्थापित करने की१५ आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में निहित है। और वह कामना की गई है, उस देव-समाज का परवर्ती रूप जो स्वाभाविक स्थिति उसकी वीतरागता, समता-भाव है। व्याख्यात हुआ है वह रागद्वेषयुक्त समाज से भिन्न नहीं। वीतराग स्थिति में पहुँच कर आत्मा स्वयं 'धर्म' का रूप किन्तु जैन संस्कृति में जिन पंच-परमेष्ठियों को पूजनीय बन जाता है । १७ संक्षेप में धर्म करने की वस्तु नहीं, देव रूप में आदर प्राप्त है, वे वीतरागता की मूर्ति हैं। बल्कि 'जीने की' वस्तु है। धर्म किया नहीं जाता है, वह साधक की स्वाभाविक क्रिया बन जाए, इसी के लिए भगवान महावीर के समय की परिस्थिति : साधक प्रयत्नशील रहता है। दूसरे शब्दों में धर्म ऊपर भगवान महावीर के समय में वैदिक संस्कृति में जो से या बाहर से थोपी जाने वाली चीज नहीं, वह तो बुराइयाँ व्याप्त थीं, उनमें जातिप्रथा, अस्पृश्यता, उच्च- स्वयं से उदभूत होने वाली स्थिति है। चारित्र को आत्मा नीच की भावना, आडम्बरपूर्ण धार्मिक क्रिया-काण्ड, से जोड़ने से तात्पर्य यह भी है कि धर्म बाहर-भीतर एक अन्ध श्रद्धा आदि प्रमुख थीं। इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी है, चिन्तन, और आचार में एकरूपता आवश्यक है ।१८ समाज की स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं थी। यद्यपि वैचा- जैन धर्म या साधना का आचरण स्वाभाविक रूप से रिक उर्वरता अधिक मात्रा में थी, पर विभिन्न दार्शनिक ही किया जाना चाहिए । अर्थात क्षेत्र और काल को तथा मतवाद परस्पर-विरोध से स्वयं अप्रतिष्ठित हो रहे थे।१६ साधक की शक्ति को ध्यान में रखकर धर्म-अधर्म के भगवान महावीर ने जगत् को 'अनेकान्त दृष्टि' दी और व्यवहार-पक्ष का मान-दण्ड नियत किया जाना उचित अहिंसा को व्यावहारिक जगत् के साथ-साथ वैचारिक है। अन्यथा 'धर्म' किसी व्यक्ति के लिए अस्वाभाविक जगत में भी प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार एक ओर भी हो सकता है। बालक, वृद्ध, स्वस्थ, रोगी-इन साम्यवाद व परस्पर-मैत्री पर आधारित समाज की रचना विविध अवस्थाओं में धर्म का एक स्वरूप निर्धारित नहीं तो प्रस्तुत हुई ही, साथ ही दूसरी ओर विविध वैचारिक किया जा सकता ।१९ किन्तु सभी प्रकार के साधकों को दृष्टिकोणों को परस्पर अविरोधपूर्वक फलने-फूलने का अंत में पहुंचना एक ही स्थिति में है, ऐसी स्थिति जहां वातावरण भी तैयार हुआ। फलस्वरूप, भारतवर्ष धर्म और साधक दोनों एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं। बौद्धिक व वैचारिक उत्कर्ष को लिए बंजर भूमि न इसलिए अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व सारी स्थितियां बनकर सर्वदा उर्वर भूमि बना चला आ रहा है । साधन-मात्र हैं, साध्य नहीं। जैन धर्म व्यवहार्य : अहिंसा-धर्म का स्वरूप : जैन ध. ऐसा नहीं है कि जिसका व्यवहार या आचरण हिंसा का हेतु हिंसा करने वाले व्यक्ति के मन में बैठा हिसा का हतु हसा करन सम्भव न हो, बल्कि वह तो आत्मा का स्वाभाविक रूप द्वष और अज्ञान 'मोह' है ।२० हिंसा की क्रिया द्विविध . १४ ऋग्वेद, १०/१६१/२; अथर्व वेद, ५/१६/७ (पप्पलाद शाखा)। १५ ऋग्वेद, १/८६/२। १६ अन्ययोगव्यबच्छेदिका ( हेमचन्द्र ), २६ । १७ प्रवचनसार, १/६२ । १८ प्रवचनसार, ३/३७; तुलनीय उत्तराध्ययन, २६/५.१ । १९ प्रवचनसार, ३/३०-३१ । २. प्रवचनसार, २/५७, ८३, ८८, ६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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