Book Title: Bharatiya Sanskruti aur Jain Dharm Sadhna Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 2
________________ संस्कृति के अनुयायी भी आकृष्ट हुए। सम्भवतः प्रारम्भ नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मनः। में उन अनुयायियों के प्रति वैदिक संस्कृति के लोगों के शांतिमासितुमिच्छामि, स्वात्मनीव जिनो यथा ॥८ मन में अनादर का भाव रहा है, किन्तु कालान्तर में वैदिक संस्कृति का प्रारम्भ में लक्ष्य जिस स्वर्ग की समन्वय का रास्ता अपना कर उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया गया। दोनों ही संस्कृतियों में परस्पर प्राप्ति था, उस स्वर्ग का वातावरण भौतिक समृद्धि, कामसुख, भोग लिप्सा का प्रतीक होते हुए भी, वासनावैचारिक आदान-प्रदान बढ़ता रहा। फलस्वरूप व्याव अतृप्ति, अशांति तथा विनश्वरता से मुक्त नहीं समझा हारिक जीवन के आचार-विचारों की दृष्टि से दोनों गया और परवती काल में वैदिक संस्कृति का लक्ष्य संस्कृतियों में मौलिक फर्क कर पाना प्रायः मुश्किल हो स्वर्ग के स्थान पर पुण्य-पाप से परे की मुक्त स्थिति हो जाता है। अहिंसा परम धर्म है, राग-द्वषादि सांसारिक गया। इसी तरह यज्ञ का स्वरूप क्रमशः अहिंसक दुःख के हेतु हैं, मनोविकारों पर विजय तथा शुद्ध आत्म होता गया और 'द्रव्य-यज्ञ' की अपेक्षा 'ज्ञान-यज्ञ' को तत्व की उपलब्धि से मुक्ति प्राप्त हो सकती है-इत्यादि प्रमुखता मिल गई। ११ यह सब जैन संस्कृति का वैदिक बातें दोनों संस्कृतियों में लगभग समान आदर व दृढ़ता संस्कृति पर प्रभाव ही था। के साथ स्वीकारी गई, और यही कारण है कि उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक संस्कृति किन्तु दोनों संस्कृतियों में मूलभूत अन्तर समाप्त के परवती आदरणीय ग्रन्थों में जेन संस्कृति के स्वर स्थल- हो गया हो ऐसी बात नहीं। संक्षेप में वह अन्तर मूलतः स्थल पर ढूंढ़े जा सकते हैं। दो बातों में है। जहाँ वैदिक संस्कृति ईश्वर या अपने उच्च आदर्शों के कारण जैन (श्रमण ) संस्कृति किसी अलौकिक शक्तिधारी व्यक्ति को इस जगत का भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई। यही कारण कर्ता, हर्ता व नियन्ता मानती है, वहीं जैन संस्कृति, ईश्वर का अस्तित्व मानती हुई भी, ईश्वर के सृष्टिकर्ताहै कि वैदिक धर्म की अपेक्षा पुरुषार्थ-कर्तव्यता के रूप में पन का निषेध करती है और जगत् के मूलभूत दो तत्वोंजैन धर्म को अधिक आदरणीय स्थान मिला, जिसका जीव व अजीव में अन्तर्निहित स्वभाव-भूत शक्ति से ही प्रमाण निम्नलिखित पद्य है जगत् का नियमन स्वीकारती है । दूसरी बात यह कि जहाँ श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनराहतः। वैदिक संस्कृति में जिन-देवताओं को पूज्य माना जाता वैदिको व्यवहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः ।। रहा है, उनकी पूज्यता उनकी चमत्कारिक शक्ति, विविध सुख-साधन, ऐश्वर्य तथा व्यावहारिक सामाजिक गुणों यहाँ तक कि भगवान राम को भी एक वैदिक आदि पर आधारित है, किन्तु जैन संस्कृति में पूज्यता संस्कृति के ग्रन्थ में शांति प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्म- की कसौटी व्यक्ति की 'वीतरागता' है। वेदों में जिस साधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए देव-शक्ति को अलंध्य, दुर्जेय, जगत-विधाता, १२ तथा वर्णित किया गया है पृथ्वी-रक्षक'३ बता कर स्थल-स्थल पर प्रार्थना आदि ७ षड्दर्शनसमुच्चय पर मणिभद्रकृत टीका ( पद्य ८ पर)। ८ योगवाशिष्ठ (वैराग्य प्रकरण), १५/८ । . ऋग्वेद, १०/१४, ४/५३/२, १०/१२/१ । १ • मुण्डकोपनिषद्, ३/१/३, १/२/७३ । १ महाभारत (शान्ति पर्व), १२/२७२, भागवत पुराण, ११/५/११.१३; गीता०,४/३३ । १२ ऋग्वेद, १०/३३/९, १०/८२/७, १०/८२/३ । १३ ऋग्वेद, १२/१/१-७ (पृथ्वी सूक्त)। २ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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