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इस संस्कृति के लोग भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए देव-शक्तियों पर आश्रित रहने वाले थे, इनके द्वारा यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी, इनका जीवन संघर्षमय व अ-सुरक्षा भावना से ग्रस्त था। दैनिक जीवन में और शत्रुओं के प्रति व्यवहार में वे पूर्णतः अहिंसक नहीं कहे जा सकते। कहीं कहीं तो इनकी क्रूरता के उदाहरण भी दृष्टिगोचर होते हैं।
ठीक इसके विपरीत, देश में पर्यटनशील व्रात्य लोगों
की परम्परा विद्यमान थी, जो व्रतनिष्ठ एवं अहिंसा भारतीय संस्कृति और जैन
धर्म के आराधक थे, जिनका विश्वास आत्म-कल्याण व
आत्म-शुद्धि में था। यह परम्परा भी, बहुत सम्भवतः धर्म-साधना
सिन्धु घाटी की सभ्यता के निर्माताओं की तरह, श्रमण
संस्कृति की अनुयायी थी। -डॉ० दामोदर शास्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली
देवों और असुरों के मध्य हुआ संघर्ष भी एक प्रकार से दो संस्कृतियों या जातियों के मध्य था । विद्वानों
का अनुमान है कि असुर राजा प्रायः अहिंसक जेन संस्कृति आर्य सभ्यता के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक
' से सम्बद्ध थे। यह बात और है कि विद्वष के कारण तथ्य प्रकट होता है कि वैचारिक प्रतिद्वंद्विता की स्थिति
'असुर' शब्द को 'हिंसक' का पर्यायवाची बना दिया प्राचीन काल से है। भारत भूमि दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी
गया। विष्णपुराण के अनुसार असुर लोग आहेत धर्म विचार-धाराओं या संस्कृतियों की संगम-स्थली रही है।
के अनुयायी थे । उनका अहिंसा में पूर्ण विश्वास ये संस्कृतियां हैं-वैदिक संस्कृति और श्रमण ( जैन )
था। यज्ञ व पशुबलि में उनकी अनास्था थी।४ श्राद्ध संस्कृति ।
व कर्मकाण्ड के वे विरोधी थे।५ महाभारत में असुर हड़प्पा व मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता के अवशेषों से
राजा बलि अपने मुख से आत्म-साधना का जो वर्णन यह सिद्ध हो गया है कि इस सभ्यता के निर्माता लोग
करता है वह जैन धर्म के सर्वथा अनुकूल है । ६ जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के अनुयायी तथा यौगिक ध्यानादि क्रियाओं द्वारा आत्म-साधना के उपासक जैन संस्कृति के तीर्थंकरों की परम्परा ने भारतीय थे। इस संस्कृति के समानान्तर दूसरी संस्कृति थी- समाज को समय-समय पर जो सद्ज्ञान दिया, उसका वैदिक संस्कृति । वेद में स्थान-स्थान पर वैदिक देवताओं प्रभाव यह हुआ है कि वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा धर्म के प्रति की गई प्रार्थनाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि को बहुमान मिलता गया। वीतराग धर्म के प्रति वैदिक । द्र० अथर्व वेद, २/५/३ । २ द्र० विष्ण पुराण, ३/१७-१८ ; देवी भागवत ४/१३/५४-५७; मत्स्य पुराण, २४/४३-४६; पद्म पुराण
(सृष्टि खण्ड), १३/१७०-४१३ । ३ विष्णु पु०, ३/१८/२६ । ४ विष्णु पु०, ३/१८/२७-२८ । ५ विष्णु पु०, ३/१८/२६-३० । ६ महाभारत ( शान्ति पर्व ), २२७ अ० (गीता प्रेस)।
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संस्कृति के अनुयायी भी आकृष्ट हुए। सम्भवतः प्रारम्भ नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मनः। में उन अनुयायियों के प्रति वैदिक संस्कृति के लोगों के शांतिमासितुमिच्छामि, स्वात्मनीव जिनो यथा ॥८ मन में अनादर का भाव रहा है, किन्तु कालान्तर में
वैदिक संस्कृति का प्रारम्भ में लक्ष्य जिस स्वर्ग की समन्वय का रास्ता अपना कर उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया गया। दोनों ही संस्कृतियों में परस्पर
प्राप्ति था, उस स्वर्ग का वातावरण भौतिक समृद्धि,
कामसुख, भोग लिप्सा का प्रतीक होते हुए भी, वासनावैचारिक आदान-प्रदान बढ़ता रहा। फलस्वरूप व्याव
अतृप्ति, अशांति तथा विनश्वरता से मुक्त नहीं समझा हारिक जीवन के आचार-विचारों की दृष्टि से दोनों
गया और परवती काल में वैदिक संस्कृति का लक्ष्य संस्कृतियों में मौलिक फर्क कर पाना प्रायः मुश्किल हो
स्वर्ग के स्थान पर पुण्य-पाप से परे की मुक्त स्थिति हो जाता है। अहिंसा परम धर्म है, राग-द्वषादि सांसारिक
गया। इसी तरह यज्ञ का स्वरूप क्रमशः अहिंसक दुःख के हेतु हैं, मनोविकारों पर विजय तथा शुद्ध आत्म
होता गया और 'द्रव्य-यज्ञ' की अपेक्षा 'ज्ञान-यज्ञ' को तत्व की उपलब्धि से मुक्ति प्राप्त हो सकती है-इत्यादि
प्रमुखता मिल गई। ११ यह सब जैन संस्कृति का वैदिक बातें दोनों संस्कृतियों में लगभग समान आदर व दृढ़ता
संस्कृति पर प्रभाव ही था। के साथ स्वीकारी गई, और यही कारण है कि उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक संस्कृति किन्तु दोनों संस्कृतियों में मूलभूत अन्तर समाप्त के परवती आदरणीय ग्रन्थों में जेन संस्कृति के स्वर स्थल- हो गया हो ऐसी बात नहीं। संक्षेप में वह अन्तर मूलतः स्थल पर ढूंढ़े जा सकते हैं।
दो बातों में है। जहाँ वैदिक संस्कृति ईश्वर या अपने उच्च आदर्शों के कारण जैन (श्रमण ) संस्कृति
किसी अलौकिक शक्तिधारी व्यक्ति को इस जगत का भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई। यही कारण
कर्ता, हर्ता व नियन्ता मानती है, वहीं जैन संस्कृति,
ईश्वर का अस्तित्व मानती हुई भी, ईश्वर के सृष्टिकर्ताहै कि वैदिक धर्म की अपेक्षा पुरुषार्थ-कर्तव्यता के रूप में
पन का निषेध करती है और जगत् के मूलभूत दो तत्वोंजैन धर्म को अधिक आदरणीय स्थान मिला, जिसका
जीव व अजीव में अन्तर्निहित स्वभाव-भूत शक्ति से ही प्रमाण निम्नलिखित पद्य है
जगत् का नियमन स्वीकारती है । दूसरी बात यह कि जहाँ श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनराहतः।
वैदिक संस्कृति में जिन-देवताओं को पूज्य माना जाता वैदिको व्यवहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः ।।
रहा है, उनकी पूज्यता उनकी चमत्कारिक शक्ति, विविध
सुख-साधन, ऐश्वर्य तथा व्यावहारिक सामाजिक गुणों यहाँ तक कि भगवान राम को भी एक वैदिक आदि पर आधारित है, किन्तु जैन संस्कृति में पूज्यता संस्कृति के ग्रन्थ में शांति प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्म- की कसौटी व्यक्ति की 'वीतरागता' है। वेदों में जिस साधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए देव-शक्ति को अलंध्य, दुर्जेय, जगत-विधाता, १२ तथा वर्णित किया गया है
पृथ्वी-रक्षक'३ बता कर स्थल-स्थल पर प्रार्थना आदि ७ षड्दर्शनसमुच्चय पर मणिभद्रकृत टीका ( पद्य ८ पर)। ८ योगवाशिष्ठ (वैराग्य प्रकरण), १५/८ । . ऋग्वेद, १०/१४, ४/५३/२, १०/१२/१ । १ • मुण्डकोपनिषद्, ३/१/३, १/२/७३ ।
१ महाभारत (शान्ति पर्व), १२/२७२, भागवत पुराण, ११/५/११.१३; गीता०,४/३३ । १२ ऋग्वेद, १०/३३/९, १०/८२/७, १०/८२/३ । १३ ऋग्वेद, १२/१/१-७ (पृथ्वी सूक्त)।
२
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की गई है, जिस देव समाज का अनुकरण करने की १४ है। वह 'धर्म' धार्मिक बाह्य क्रियाकाण्डों की अपेक्षा तथा उससे सख्य-भाव 'मैत्री' स्थापित करने की१५ आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में निहित है। और वह कामना की गई है, उस देव-समाज का परवर्ती रूप जो स्वाभाविक स्थिति उसकी वीतरागता, समता-भाव है। व्याख्यात हुआ है वह रागद्वेषयुक्त समाज से भिन्न नहीं। वीतराग स्थिति में पहुँच कर आत्मा स्वयं 'धर्म' का रूप किन्तु जैन संस्कृति में जिन पंच-परमेष्ठियों को पूजनीय बन जाता है । १७ संक्षेप में धर्म करने की वस्तु नहीं, देव रूप में आदर प्राप्त है, वे वीतरागता की मूर्ति हैं। बल्कि 'जीने की' वस्तु है। धर्म किया नहीं जाता है,
वह साधक की स्वाभाविक क्रिया बन जाए, इसी के लिए भगवान महावीर के समय की परिस्थिति :
साधक प्रयत्नशील रहता है। दूसरे शब्दों में धर्म ऊपर भगवान महावीर के समय में वैदिक संस्कृति में जो से या बाहर से थोपी जाने वाली चीज नहीं, वह तो बुराइयाँ व्याप्त थीं, उनमें जातिप्रथा, अस्पृश्यता, उच्च- स्वयं से उदभूत होने वाली स्थिति है। चारित्र को आत्मा नीच की भावना, आडम्बरपूर्ण धार्मिक क्रिया-काण्ड, से जोड़ने से तात्पर्य यह भी है कि धर्म बाहर-भीतर एक अन्ध श्रद्धा आदि प्रमुख थीं। इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी है, चिन्तन, और आचार में एकरूपता आवश्यक है ।१८ समाज की स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं थी। यद्यपि वैचा- जैन धर्म या साधना का आचरण स्वाभाविक रूप से रिक उर्वरता अधिक मात्रा में थी, पर विभिन्न दार्शनिक ही किया जाना चाहिए । अर्थात क्षेत्र और काल को तथा मतवाद परस्पर-विरोध से स्वयं अप्रतिष्ठित हो रहे थे।१६ साधक की शक्ति को ध्यान में रखकर धर्म-अधर्म के भगवान महावीर ने जगत् को 'अनेकान्त दृष्टि' दी और व्यवहार-पक्ष का मान-दण्ड नियत किया जाना उचित अहिंसा को व्यावहारिक जगत् के साथ-साथ वैचारिक है। अन्यथा 'धर्म' किसी व्यक्ति के लिए अस्वाभाविक जगत में भी प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार एक ओर भी हो सकता है। बालक, वृद्ध, स्वस्थ, रोगी-इन साम्यवाद व परस्पर-मैत्री पर आधारित समाज की रचना विविध अवस्थाओं में धर्म का एक स्वरूप निर्धारित नहीं तो प्रस्तुत हुई ही, साथ ही दूसरी ओर विविध वैचारिक किया जा सकता ।१९ किन्तु सभी प्रकार के साधकों को दृष्टिकोणों को परस्पर अविरोधपूर्वक फलने-फूलने का अंत में पहुंचना एक ही स्थिति में है, ऐसी स्थिति जहां वातावरण भी तैयार हुआ। फलस्वरूप, भारतवर्ष धर्म और साधक दोनों एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं। बौद्धिक व वैचारिक उत्कर्ष को लिए बंजर भूमि न इसलिए अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व सारी स्थितियां बनकर सर्वदा उर्वर भूमि बना चला आ रहा है । साधन-मात्र हैं, साध्य नहीं। जैन धर्म व्यवहार्य :
अहिंसा-धर्म का स्वरूप : जैन ध. ऐसा नहीं है कि जिसका व्यवहार या आचरण
हिंसा का हेतु हिंसा करने वाले व्यक्ति के मन में बैठा
हिसा का हतु हसा करन सम्भव न हो, बल्कि वह तो आत्मा का स्वाभाविक रूप द्वष और अज्ञान 'मोह' है ।२० हिंसा की क्रिया द्विविध
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१४ ऋग्वेद, १०/१६१/२; अथर्व वेद, ५/१६/७ (पप्पलाद शाखा)। १५ ऋग्वेद, १/८६/२। १६ अन्ययोगव्यबच्छेदिका ( हेमचन्द्र ), २६ । १७ प्रवचनसार, १/६२ । १८ प्रवचनसार, ३/३७; तुलनीय उत्तराध्ययन, २६/५.१ । १९ प्रवचनसार, ३/३०-३१ । २. प्रवचनसार, २/५७, ८३, ८८, ६६ ।
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रूप से होती है । स्व- हिंसा और पर हिंसा | हिंसा का विचार उठते ही हिंसक व्यक्ति की आत्मा स्वरूपच्युत हो जाती है और वह स्वयं का वध कर लेता है । इसके अनन्तर 'पर जीव' के प्राणों का घात होता कभी-कभी हिंसा का विचार मन में उठकर रह जाता है या पर जीव का हिंसा का प्रयास सफल नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में भले ही व्यावहारिक रूप से हिंसा न दिखाई पड़े, वैचारिक दृष्टि से हिंसक व्यक्ति की आत्मा की हिंसा तो हो ही गई और हिंसा का फल उस व्यक्ति को मिलेगा ही । २१
इस प्रकार हिंसा के दो भेद हैं- अन्तरंग हिंसा, और रंग हिंसा । अशुद्धोपयोग अन्तरंग हिंसा और पर - जीव का प्राणोच्छेद बहिरंग हिंसा है। किन्तु बहिरंग हिंसा के कर्म का बन्ध कारक होना या न होना अन्तरंग हिंसा पर निर्भर है । १२ अन्तरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा का कुफल व्यक्ति को नहीं भोगना पड़ेगा। इसीलिए कहा गया कि यतनापूर्वक ( समिति ) आचरण करने वाले साधक को व्यावहारिक हिंसा के होने पर भी बन्ध नहीं होता, जबकि यतनापूर्वक आचरण न करने वाले को बाह्य हिंसा न होने पर भी, स्वात्मघात का दोष लगेगा ही अंतरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्वतः अप्रतिष्ठित हो जाएगी ।
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व्यवहार धर्म और वीतरागता की साधन :
यद्यपि वीतरागता की स्थिति ही साधक का लक्ष्य है, किन्तु वहाँ तक पहुंचने में कई सीढ़ियों पार करनी पड़ती हैं, मोह, राग और द्वेष के स्तर को क्रमशः भेद कर ही बढ़ना सम्भव है । हिंसा, द्वेष, अपकार आदि कार्य
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१५ रवणसार, १० १ ६ प्रवचनसार, १/७६
२७
प्रवचनसार, ३/५०
४]
११० प्रवचनसार २/५७ पर जयसेनाचार्य कृत टीका कार्तिकेवानुप्रेक्षा, २/३१ । २२ प्रवचन सार, ३/१७ पर अमृतचन्द्र कृत टीका ।
१० प्रवचन सार १/६, १/५, १/१२, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका
२४ समयसार ३ / ९४६
प्रवचनसार १/७७
प्रपचनसार ३ / ५५ पर जयसेन कृत टीका |
असुभोपयोग हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार उपादेय नहीं समझना चाहिए | इस स्थिति से ही तो ऊपर उठना जैन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। वीतरागता की स्थिति शुद्धोपयोग है जो मोक्ष का साक्षात् कारण है और साधना की सीमा है । साधना में विषवराग को छोड़कर स्वधर्म तथा धर्मोपयोगी साधनों के प्रति अपने को अनुरक्त करना पड़ता है । इस स्थिति में साधक में स्वभावतः पंच परमेष्ठी आदि में भक्ति का भाव रहता है। जीवों पर दया, अनुकम्पा, करुणा आदि के भाव भी यथासामग्री साधक में उत्पन्न होते हैं । यह सारी स्थिति शुभोपयोग रूप कही जाती है। यह शुभोपयोगी स्थिति अशुभोपयोगी स्थिति की अपेक्षा उपादेय या प्रशस्त कही जा सकती है, किन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह इस स्थिि को संसार-बन्ध का कारण समझते हुए शुद्धोपयोग की स्थिति पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहे । २* शुभप्रयोग से भले ही पुण्य मिलता हो, किन्तु पुण्य प्राप्त स्वर्गादि का सुख भी एक दृष्टि से बन्धन ही है । २४ यदि शुभोपयोग की स्थिति भी सम्यक्त्व से आलोकित हो तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त होना कहा गया है। २५ शुभोपयोग की स्थिति में यदि मोहयस्तता हो तो शुद्धात्म प्राप्ति असम्भव है। १६ इसके विपरीत, शुद्धोपयोग की लक्ष्य कर आगे बढ़ने वाला साधक, शुभोपयोग की प्रवृत्ति करता हुआ भी दोषग्रस्त नहीं होता ।
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I
मुनि अवस्था में साधक शुभोपयोग करता हुआ भी अपने संगम का घात न हो इसका विशेष ख्याल रखता है । २७ साथ ही वह शुभोपयोग को कभी मुख्यता प्रदान नहीं करता शुद्धोपयोग की तुलना में गौण ही रखता
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है ।२८ प्रशस्त राग की पात्रता-अपात्रता भी फल की इसीलिए, सम्भवतः करुणा को मोह का चिह्न बताया अनुकूलता-प्रतिकूलता की 'अल्पता-अधिकता' करती गया है।३३ जब कि सभी जीवों में आत्मा एक जैसी है । २९ गृहस्थ ( सागार ) साधक की दृष्टि में शुभोपयोग है तो उनमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना लानाकी स्थिति 'अशुभोपयोग की तुलना में' मुख्य रूप से 'अज्ञान' ही कहा जाएगा।३४ परमार्थतः तो सांसारिक ग्राह्य है। शुभोपयोग में स्थिरता के अनन्तर ही वह पदार्थ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी स्थायी नहीं, अतः शुद्धोपयोग के प्रति अग्रसर हो सकता है, इसीलिए कुछ उनके आधार पर स्वयं को उच्च तथा दूसरे को नीच विचारक 'सराग चारित्र' को वीतराग चारित्र में साधन समझना असंगत ही है ।३५ इसके अतिरिक्त, दानादि मानते हैं ।३० किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपने पद के अनुरूप कार्यों में कतृ त्व-भावना भी त्याज्य है, क्योंकि पारमार्थिक पुण्याचरण करता हुआ वीतराग चारित्र में रहता हुआ, दृष्टि से कोई द्रव्य किसी ‘पर द्रव्य' का कर्ता ही नहीं उसका दिव्य वैभव फल भोगता हुआ भी पुण्याचरण होता ।३६ कोई भी देव या मनुष्य हो, किसी का न तो को मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं मानता, उस प्राप्त वैभव । उपकार कर सकता है और न अपकार ही।३७ अपने को स्वपद नहीं स्वीकारता। .
शुभाशुभ कर्म ही अपना शुभ या अशुभ करते हैं। मैं व्यवहार-धर्म करते हुए भी व्यवहार से ऊपर उठना कैसे किसी को मारता हूँ या जिलाता हूँ-यह भावनाएं सम्भव:
'मूढ़ता' हैं ।३८ करुणा, अनुकम्पा, दया आदि कार्य प्रशस्त होते हुए उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनु- भी शुभोपयोग वीतरागता की तुलना में कुछ नीची स्थिति कम्पा, दया, करुणा आदि कार्य किए तो जाएँ,३९ किन्तु के द्योतक हैं । ३१ इसका कारण यह है कि इन कार्यों में ममत्व, कतृत्व तथा अहंभावनाओं को निकाल कर ।४० 'राग' भाव है जो बन्ध का कारण कहा गया है । ३२ जव इसीलिए व्यवहार-धर्म के आचरण के विषय में आचार्यों कोई व्यक्ति किसी पर दया, करुणा आदि प्रदर्शित करता का निर्देश है कि ये पुण्य-प्राप्ति हेतु न किये जाएँ ।४१ है तो उसके मन में किसी को दयनीय समझने की, तथा इस निर्देश को ध्यान में रख कर साधक व्यावहारिक पर-उपकार करने के स्वसामर्थ्य को प्रदर्शित करने की धरातल से ऊपर उठता हुआ क्रमशः शुद्धात्म-प्राप्ति के भावना होती है, यह भावना अज्ञानमूलक होती है। लक्ष्य तक पहुँच जाएगा। निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, २८ प्रवचनसार, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । २. प्रवचनसार, ३/५४ पर जयसेन कृत टीका । १० प्रवचनसार, ३/७५ पर जयसेन कृत टीका ; आत्मानुशासन, १२२ ।
प्रवचनसार, ३/४५ पर अमृतचन्द्र कृत टीका। ३२ प्रवचनसार, २/८७, ३/४३ ।
प्रवचनसार, १/८५।
प्रवचनसार, २/२२ । ३५ प्रवचनसार, २/१०१ । ३६ समयसार, ३/३१ (६६); प्रवचनसार, २/६८। ३७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३१६ (१२/३१६ )। ३८ समयसार, ७/२५०, २५६ ; प्रवचनसार, १/७६ । ३९ उत्तराध्ययन, ६/२; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३०; सूत्रकृतांग, १/११-१२ । ४. पंचास्तिकाय, १६६ दशवेकालिक, ६/६ ।। ४१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १२/४०६; भावसंग्रह, ४०४ ।
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________________ ऐसी श्रद्धा के साथ शद्धात्म-प्राप्ति के अनुकूल चारित्र- ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं: पालन करने वाले साधक को मुक्ति मिलती है, अन्यथा यह लोक जीव तथा अजीव का क्रीडा-स्थल है।४५ प्रशस्त बाह्याचरण तो पुण्यबन्ध का कारण है। जो दोनों ही तत्व अनादि व अनन्त है / 46 संसार की शुद्धात्मा को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखते, और प्रक्रिया स्वभावतः होती रहती है। भौतिक जगत छोटेसर्वविधि पुण्यकार्य करते हैं, वे मोक्ष को तो पाते ही नहीं, बड़े पिण्डों का निर्माण व भंग उनमें निहित रूक्ष व. बल्कि संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं / 4 2 स्निग्ध शक्ति पर निर्भर है।४७ आत्मा के कर्म 'बन्ध' का निर्माण भी पौद्गलिक शक्ति के कारण स्वतः सम्भव स्वरूप में पूर्ण स्थिरता न आने से शुभ राग की होता है / 48 संसार में जीवों के सुख-दुःख का तारतम्य स्थिति हो भी, तो साधक को चाहिए कि वह निजात्म- भी कर्मकृत है।४९ इस प्रकार विश्व की व्यवस्था तत्वों स्वरूप में विशेष लीनता बनाए रखे। यदि इसमें में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है किसी ईश्वरीय कमजोरी रही तो उपशम श्रेणी से आरोहण करना होगा, शक्ति को नियामक आदि के रूप में मानने की कोई क्षपक श्रेणी से नहीं। ऐसी स्थिति में राग का सम्पूर्ण जरूरत नहीं। अभाव सम्भव नहीं होगा / अतः पुण्याचरण को भी साधक जैन दृष्टि से स्वयंभू तथा ईश्वर की स्थिति प्रत्येक 'स्व' भाव न समझे, विभाव रूप से ही माने / आत्मा को वीतरागता से प्राप्त हो सकती है / 5. किन्तु इस स्थिति में आत्मा 'पर-पदार्थों' को न ग्रहण करता साधना करने वाले की अवस्था पर शभोपयोग की है, न छोड़ता है और न उनके रूप में परिणमन करता है मुख्यता व गौणता समझनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपितु स्वस्वरूपस्थित रहता है / 51 यद्यपि जैसे दर्पण में के लिए अशुभोपयोग के त्याग की दृष्टि से शुभोपयोग घटपटादि-पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं, वैसे ही व्यावहारिक . की मुख्यता है, किन्तु वही शुभोपयोग उच्च स्तर के दृष्टि से केवली के ज्ञान में ज्ञय पदार्थों की सत्ता है / 52 साधक के लिए, शुद्धात्मपरिणति के लक्ष्य की दृष्टि से इस प्रकार जैन दृष्टि से ईश्वर संसार का नियामक गौण कहा जाएगा।४३ पहले साधक विषयों से अनुराग नहीं। प्रत्येक जीव वीतरागता प्राप्त कर ईश्वरीय महनीय छोड़ दे, फिर गुणस्थान-क्रम से बढ़ते-बढ़ते रागादि से पद प्राप्त कर सकता है / 53 संसार के कार्यों में वीतराग रहित शुद्धात्मा में स्थित होता हुआ, अहेत आदि में की आसक्ति कभी हो ही नहीं सकती। उक्त ईश्वरत्व की भक्ति-विषयक राग भी छोड़ दे / 44 / / शक्ति प्रत्येक आत्मा में निहित है।५४ 4 2 भावपाहुड़, 84 ; समयसार, 3/153 / प्रवचनसार, 3/54 पर जयसेन कृत टीका / 4 पंचा स्तिकाय, 167 गाथा पर तात्पर्यवृत्ति टीका। 45 प्रवचनसार, 2/37 ; 2/44 पर अमृतचन्द्र कृत टीका ; उत्तराध्ययन, 36/2 / प्रवचनसार, 2/3,11, 2/6 पर अमृतचन्द्र कृत टीका / 47 प्रवचनसार, 2/74-75 / प्रवचनसार, 2/77-78; पंचास्तिकाय, 65 / प्रवचनसार, 2/65 पर अमृतचन्द्र कृत टीका / 50 प्रवचनसार, 1/16, 1/15; पंचास्तिकाय, 26,172 / प्रवचनसार, 1/32 / प्रवचनसार, 1/31 पर आधारित जयसेन कृत टीका / प्रवचनसार, 1/81 / 54 समाधिशतक, 98%3 प्रवचनसार, 1/15 /