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________________ रूप से होती है । स्व- हिंसा और पर हिंसा | हिंसा का विचार उठते ही हिंसक व्यक्ति की आत्मा स्वरूपच्युत हो जाती है और वह स्वयं का वध कर लेता है । इसके अनन्तर 'पर जीव' के प्राणों का घात होता कभी-कभी हिंसा का विचार मन में उठकर रह जाता है या पर जीव का हिंसा का प्रयास सफल नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में भले ही व्यावहारिक रूप से हिंसा न दिखाई पड़े, वैचारिक दृष्टि से हिंसक व्यक्ति की आत्मा की हिंसा तो हो ही गई और हिंसा का फल उस व्यक्ति को मिलेगा ही । २१ इस प्रकार हिंसा के दो भेद हैं- अन्तरंग हिंसा, और रंग हिंसा । अशुद्धोपयोग अन्तरंग हिंसा और पर - जीव का प्राणोच्छेद बहिरंग हिंसा है। किन्तु बहिरंग हिंसा के कर्म का बन्ध कारक होना या न होना अन्तरंग हिंसा पर निर्भर है । १२ अन्तरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा का कुफल व्यक्ति को नहीं भोगना पड़ेगा। इसीलिए कहा गया कि यतनापूर्वक ( समिति ) आचरण करने वाले साधक को व्यावहारिक हिंसा के होने पर भी बन्ध नहीं होता, जबकि यतनापूर्वक आचरण न करने वाले को बाह्य हिंसा न होने पर भी, स्वात्मघात का दोष लगेगा ही अंतरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्वतः अप्रतिष्ठित हो जाएगी । । व्यवहार धर्म और वीतरागता की साधन : यद्यपि वीतरागता की स्थिति ही साधक का लक्ष्य है, किन्तु वहाँ तक पहुंचने में कई सीढ़ियों पार करनी पड़ती हैं, मोह, राग और द्वेष के स्तर को क्रमशः भेद कर ही बढ़ना सम्भव है । हिंसा, द्वेष, अपकार आदि कार्य - १५ रवणसार, १० १ ६ प्रवचनसार, १/७६ २७ प्रवचनसार, ३/५० ४] ११० प्रवचनसार २/५७ पर जयसेनाचार्य कृत टीका कार्तिकेवानुप्रेक्षा, २/३१ । २२ प्रवचन सार, ३/१७ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । १० प्रवचन सार १/६, १/५, १/१२, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका २४ समयसार ३ / ९४६ प्रवचनसार १/७७ प्रपचनसार ३ / ५५ पर जयसेन कृत टीका | Jain Education International असुभोपयोग हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार उपादेय नहीं समझना चाहिए | इस स्थिति से ही तो ऊपर उठना जैन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। वीतरागता की स्थिति शुद्धोपयोग है जो मोक्ष का साक्षात् कारण है और साधना की सीमा है । साधना में विषवराग को छोड़कर स्वधर्म तथा धर्मोपयोगी साधनों के प्रति अपने को अनुरक्त करना पड़ता है । इस स्थिति में साधक में स्वभावतः पंच परमेष्ठी आदि में भक्ति का भाव रहता है। जीवों पर दया, अनुकम्पा, करुणा आदि के भाव भी यथासामग्री साधक में उत्पन्न होते हैं । यह सारी स्थिति शुभोपयोग रूप कही जाती है। यह शुभोपयोगी स्थिति अशुभोपयोगी स्थिति की अपेक्षा उपादेय या प्रशस्त कही जा सकती है, किन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह इस स्थिि को संसार-बन्ध का कारण समझते हुए शुद्धोपयोग की स्थिति पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहे । २* शुभप्रयोग से भले ही पुण्य मिलता हो, किन्तु पुण्य प्राप्त स्वर्गादि का सुख भी एक दृष्टि से बन्धन ही है । २४ यदि शुभोपयोग की स्थिति भी सम्यक्त्व से आलोकित हो तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त होना कहा गया है। २५ शुभोपयोग की स्थिति में यदि मोहयस्तता हो तो शुद्धात्म प्राप्ति असम्भव है। १६ इसके विपरीत, शुद्धोपयोग की लक्ष्य कर आगे बढ़ने वाला साधक, शुभोपयोग की प्रवृत्ति करता हुआ भी दोषग्रस्त नहीं होता । - I मुनि अवस्था में साधक शुभोपयोग करता हुआ भी अपने संगम का घात न हो इसका विशेष ख्याल रखता है । २७ साथ ही वह शुभोपयोग को कभी मुख्यता प्रदान नहीं करता शुद्धोपयोग की तुलना में गौण ही रखता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211575
Book TitleBharatiya Sanskruti aur Jain Dharm Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Shastri
PublisherZ_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
Publication Year1986
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size583 KB
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