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________________ ऐसी श्रद्धा के साथ शद्धात्म-प्राप्ति के अनुकूल चारित्र- ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं: पालन करने वाले साधक को मुक्ति मिलती है, अन्यथा यह लोक जीव तथा अजीव का क्रीडा-स्थल है।४५ प्रशस्त बाह्याचरण तो पुण्यबन्ध का कारण है। जो दोनों ही तत्व अनादि व अनन्त है / 46 संसार की शुद्धात्मा को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखते, और प्रक्रिया स्वभावतः होती रहती है। भौतिक जगत छोटेसर्वविधि पुण्यकार्य करते हैं, वे मोक्ष को तो पाते ही नहीं, बड़े पिण्डों का निर्माण व भंग उनमें निहित रूक्ष व. बल्कि संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं / 4 2 स्निग्ध शक्ति पर निर्भर है।४७ आत्मा के कर्म 'बन्ध' का निर्माण भी पौद्गलिक शक्ति के कारण स्वतः सम्भव स्वरूप में पूर्ण स्थिरता न आने से शुभ राग की होता है / 48 संसार में जीवों के सुख-दुःख का तारतम्य स्थिति हो भी, तो साधक को चाहिए कि वह निजात्म- भी कर्मकृत है।४९ इस प्रकार विश्व की व्यवस्था तत्वों स्वरूप में विशेष लीनता बनाए रखे। यदि इसमें में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है किसी ईश्वरीय कमजोरी रही तो उपशम श्रेणी से आरोहण करना होगा, शक्ति को नियामक आदि के रूप में मानने की कोई क्षपक श्रेणी से नहीं। ऐसी स्थिति में राग का सम्पूर्ण जरूरत नहीं। अभाव सम्भव नहीं होगा / अतः पुण्याचरण को भी साधक जैन दृष्टि से स्वयंभू तथा ईश्वर की स्थिति प्रत्येक 'स्व' भाव न समझे, विभाव रूप से ही माने / आत्मा को वीतरागता से प्राप्त हो सकती है / 5. किन्तु इस स्थिति में आत्मा 'पर-पदार्थों' को न ग्रहण करता साधना करने वाले की अवस्था पर शभोपयोग की है, न छोड़ता है और न उनके रूप में परिणमन करता है मुख्यता व गौणता समझनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपितु स्वस्वरूपस्थित रहता है / 51 यद्यपि जैसे दर्पण में के लिए अशुभोपयोग के त्याग की दृष्टि से शुभोपयोग घटपटादि-पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं, वैसे ही व्यावहारिक . की मुख्यता है, किन्तु वही शुभोपयोग उच्च स्तर के दृष्टि से केवली के ज्ञान में ज्ञय पदार्थों की सत्ता है / 52 साधक के लिए, शुद्धात्मपरिणति के लक्ष्य की दृष्टि से इस प्रकार जैन दृष्टि से ईश्वर संसार का नियामक गौण कहा जाएगा।४३ पहले साधक विषयों से अनुराग नहीं। प्रत्येक जीव वीतरागता प्राप्त कर ईश्वरीय महनीय छोड़ दे, फिर गुणस्थान-क्रम से बढ़ते-बढ़ते रागादि से पद प्राप्त कर सकता है / 53 संसार के कार्यों में वीतराग रहित शुद्धात्मा में स्थित होता हुआ, अहेत आदि में की आसक्ति कभी हो ही नहीं सकती। उक्त ईश्वरत्व की भक्ति-विषयक राग भी छोड़ दे / 44 / / शक्ति प्रत्येक आत्मा में निहित है।५४ 4 2 भावपाहुड़, 84 ; समयसार, 3/153 / प्रवचनसार, 3/54 पर जयसेन कृत टीका / 4 पंचा स्तिकाय, 167 गाथा पर तात्पर्यवृत्ति टीका। 45 प्रवचनसार, 2/37 ; 2/44 पर अमृतचन्द्र कृत टीका ; उत्तराध्ययन, 36/2 / प्रवचनसार, 2/3,11, 2/6 पर अमृतचन्द्र कृत टीका / 47 प्रवचनसार, 2/74-75 / प्रवचनसार, 2/77-78; पंचास्तिकाय, 65 / प्रवचनसार, 2/65 पर अमृतचन्द्र कृत टीका / 50 प्रवचनसार, 1/16, 1/15; पंचास्तिकाय, 26,172 / प्रवचनसार, 1/32 / प्रवचनसार, 1/31 पर आधारित जयसेन कृत टीका / प्रवचनसार, 1/81 / 54 समाधिशतक, 98%3 प्रवचनसार, 1/15 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211575
Book TitleBharatiya Sanskruti aur Jain Dharm Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Shastri
PublisherZ_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
Publication Year1986
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size583 KB
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