Book Title: Bharatiya Jyotish
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 5
________________ मुझे मालूम हुआ कि सामने 'भवन' के सिंहद्वार से वीणाधारिणी, हंसवाहिनी, शुभ्रवसना, शान्तिदायिनी सरस्वती मुसकराती हुई आयी और उसने मेरे मस्तक पर अपना वरदहस्त रखा । अवलम्बन पा मेरे अज्ञान - वारिद हटने लगे, विचार - वल्लरी झूमने लगी, मन-मधुकर गुनगुनाने लगा । मुझे ऐसा लगा कि चन्द्रमा और नक्षत्रों ने कहा- अब विलम्ब क्या ? दो वर्ष से निखट्टू बन बैठे हो, सावधान हो जाओ । आँखें खोलते ही मूर्ति अदृश्य हो गयी, पर अपार भीड़ का कोलाहल ज्यों का त्यों था । मैंने इधर-उधर उस दिव्य सौन्दर्य को देखा, पर अब वहाँ केवल सौरभ ही था । अतः कलेजे को हाथों से थामे बहुत देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहा । सोचता रहा कि क्या सचमुच ही मैं ज्योतिष विषय पर लिख सकूंगा । रात के दो बजे भीड़ का ताँता बन्द हुआ, मैं 'भवन' बन्द कर घर गया । प्रातःकाल जागने पर मन कुछ भारी-सा प्रतीत हुआ । रात को उलझन ऐंठती जा रही थी । रह-रहकर हृदय से असन्तोष और अतृप्ति के निःश्वास निकल रहे थे । हर्ष और विषाद की धूप-छाया ने मन को बेचैन कर दिया था । अतः भाराच्छन्न मन लिये चल पड़ा अपने अभिन्न मित्र स्वर्गीय श्री पं. जगन्नाथ तिवारी के पास । मैंने अपने हृदय को उनके समक्ष उड़ेल दिया और रात की घटना ज्यों की त्यों बिना किसी नमक-मिर्च के कह सुनायी । अपने स्वभावानुसार सुनकर वह खूब हँसे और बोले— "आखिरकार बात वही होगी, जो मैं कहा करता था । यदि इस भी तुम अड़ियल घोड़े की तरह अड़े रहे तो तुम्हारे जीवन में दुर्भाग्य होगा ।" प्रेरणा को पाकर यह सबसे बड़ा उनका मेरे लिए स्नेह का सम्बोधन था महाराज जी, अतः अपने इस सम्बोधन का प्रयोग करते हुए मेरी पीठ थपथपायी और आज्ञा के स्वर में कहा - " कल भारतीय ज्योतिष' की रूपरेखा बन जानी चाहिए और परसों से तुमको मुझे लिखकर प्रतिदिन कम से कम पाँच पृष्ठ देने होंगे । बस, अब महाराज जी जाइए, मैं इससे अधिक कन्सेशन करनेवाला नहीं हूँ ।" उनके इस स्नेह ने मेरा मन हलका कर दिया । घर आते ही माथापच्ची कर रूपरेखा तैयार की और लिखना आरम्भ कर दिया। अपने लिखने में पूज्या माँ श्री पण्डिता चन्दाबाई जी से भी जब-तब सलाह ले लेता था । जिस किसी तरह से दो वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चात् पुस्तक समाप्त हुई । लिखने का कार्य पूर्ण होने के अनन्तर मैंने एक पत्र श्रद्वेय पं. नाथूराम प्रेमी, बम्बई को लिखा, जिसमें अपनी इस रचना के देखने का अनुरोध किया । प्रेमी जी ने उत्तर में लिखा कि- " मैं ज्योतिष विषय से अभिज्ञ नहीं हूँ, अतः अपनी पुस्तक अवलोकनार्थ मेरे पास न भेजकर श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी के पास भेजें । मैं पत्र-व्यवहार कर आपकी पुस्तक के अवलोकन की उनसे स्वीकृति लिये लेता हूँ । आपको उपयुक्त सुझाव उन्हीं से मिल सकेगा । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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