Book Title: Bharatiya Darshano me Atmatattva
Author(s): M P Patairiya
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 2
________________ (साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ मिथ्या है । बल्कि, मानना यह चाहिए कि उन सबके अनुभवों/विश्लेषणों को मिलाकर, आत्म-तत्त्व का जो स्वरूप निखरता/स्पष्ट होता है; वही उसका समग्र स्वरूप होगा। क्योंकि, जिस ऋषि/आचार्य ने आत्मा के जिस स्वरूप का साक्षात्कार/विश्लेषण किया, सिर्फ वही स्वरूप आत्मा का नहीं है। बल्कि वे सारे स्वरूप, आत्म-तत्त्व के उन भिन्न-भिन्न पहलुओं से जुड़े हैं, जिन पहलुओं का साक्षात्कार, अलगअलग ऋषियों/आचार्यों के द्वारा किया गया। यह एक अलग बात है कि चिन्तन/समीक्षण के प्रसंग में, इन भिन्न-भिन्न पहलुओं को, पृथक्-पृथक् इस आशय से विवेचित किया जाये कि उनके पारस्परिक साम्य वैषम्य को स्पष्ट समझा जा सके । इसी भावना से, भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व का सैद्धान्तिक विश्लेषण और उसकी समीक्षा, यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। चार्वाक दर्शन में आत्म-चिन्तन आत्म-तत्त्व का सबसे स्थूल स्वरूप, चार्वाक दर्शन में देखा जा सकता है। यद्यपि चार्वाक दर्शन के सिद्धान्त/आचार का कोई व्यवस्थित/सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; तथापि, उसके नाम से, विभिन्न शास्त्रों/ग्रन्थों में जो उल्लेख आये हैं, उन्हीं को, उसकी परम्परा का मान लिया गया। एक विलक्षण तथ्य तो यह है, आत्मा के स्थूल/भौतिक स्वरूप के बहुत सारे वर्णन, उपनिषदों में भी पाये गये हैं। इन सबको मिलाकर, आत्मा की स्थूलता को प्रकट करने वाले, सारे सिद्धान्तों को, यहाँ एक क्रम से दिया जा रहा है। भूतचैतन्यवाद- प्रत्येक प्राणी में, स्वतन्त्र बुद्धि/विवेक पाये जाते हैं। जैसे किसी को मिठाई खाने में आनन्द की अनुभूति होती है, तो कोई खट्टी चीजों में विशेष रस-आनन्द अनुभव करता है; और तीसरा, चटपटे चरपरे स्वाद में आनन्दमग्न हो जाता है। इसी तरह, यह माना जा सकता है, कि जिसे, जिस वजह/तरह से दुःखों से छुटकारा मिल जाये, वही उसका आत्मा/आत्म-साक्षात्कार स्वीकार कर लिया जाये; यह मानना स्वाभाविक है । चार्वाकों की मान्यता है कि आत्मा एक है। वह स्वतन्त्र है, चैतन्ययुक्त है, आर कमा का कता है। चूकि यह, भूत समुदाय के मिश्रण से उत्पन्न होता है इसलिए वह प्रत्यक्ष द्वारा जाना जा सकता है। शरीर में जो चेतनता है, वह भूत/तत्त्व समुदाय के सम्मिलन से अपने आप पैदा हो जाती है इसमें कोई महत्त्वपूर्ण कारण अपेक्षित नहीं होता है, जैसे, दो/चार पदार्थों को साथ-साथ मिला देने पर उनमें से मादकता पैदा होती है। यहाँ, ध्यान देने की बात यह है कि जिन कुछ पदार्थों को साथ-साथ मिलाया जाता है, उनमें, कोई पदार्थ ऐसा नहीं होता, जो अपने में से मादकता उगा सके । किन्तु, परस्पर मेल के वाद, उनमें से मादकता अपने-आप पैदा हो जाती है । इसी तरह, पृथिवी-जल-तेज और वायु, इन चार भूतों, पदार्थों में से किसी भी एक में, चेतनता नहीं पायी जाती; किन्तु चारों का मिलाप/मिश्रण हो जाने पर, उनमें से चेतनता अपने आप उभर आती है। जैसे बरसात में मेंढक आदि तमाम कीड़े-मकोड़े, भूतों में से अपने आप पैदा हो जाते हैं । यही बात, मनुष्य आदि जीवों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। देहात्मवाद-लोक व्यवहार में, सहज ही हम देखते हैं कि घर में आग लग जाने पर, हर व्यक्ति, अपने आपको बचाकर भाग निकलता है; भले ही, उसके बच्चे, पत्नी आदि, जलते हुए घर में क्यों न रह जायें। इस मानसिकता से यह तथ्य स्पष्ट होता है, कि व्यक्ति को, पुत्र आदि की अपेक्षा अपना देह अधिक प्रिय होता है । 'आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।' चूंकि सारी क्रियायें, देह में/देह के द्वारा ही २ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य

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