Book Title: Bharatiya Darshano me Atmatattva
Author(s): M P Patairiya
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 19
________________ साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ संयोग का हेतु 'अविद्या' है। यह जीव, अनन्त शरीरों में भ्रमण, मन के साथ करता है। मुक्त अवस्था में भी यह मन, प्रत्येक अवस्था के साथ रहता है । इसी कारण, एक आत्मा को दूसरी आत्माओं से भिन्न माना गया है । आशय यह है कि जीव 'मन' से कभी भी मुक्त नहीं होता । 'जीव' व्यापक है, किन्तु मन के संयोग के कारण वह 'अव्यापक' जैसा जान पड़ता है; और इसी के संयोग के कारण, अनादि कर्मसंस्कारोंवश, एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रविष्ट होता रहता है । यद्यपि समस्त दुःखों का विनाश हो जाने पर, आत्मा का 'मुक्त' हो जाना नैयायिकों ने माना है; किन्तु, मन से इसे मुक्ति नहीं मिल पाती । इस कारण, संसारावस्था में स्थित आत्मा और मुक्त अवस्था में स्थित आत्मा में सिर्फ यह अन्तर होता है कि संसारावस्था में, इसके ज्ञान- सुख-दुःख आदि गुण उत्पन्न होते रहते हैं; मुक्त अवस्था में ये गुण उत्पन्न नहीं होते, किन्तु उस अवस्था में, इन गुणों की स्वरूपयोग्यता तो उसमें रहती ही है । इस तरह आत्मा को संसारावस्था में दूसरे द्रव्यों से पृथक् मानने में, उसके 'गुणास्तित्व' को, और मुक्त अवस्था में इन गुणों की 'स्वरूप योग्यता' का पृथक्त्व साधक माना गया है । इससे, यह स्पष्ट सकता है कि मुक्त जीव में भी 'स्वरूप योग्यता' जैसी संसारावस्था रहती है । यदि उस मुक्त जीव को, किसी तरह शरीर आदि साधन वहाँ मिल जायें, तो उसमें और संसारी जीव में, कोई फर्क न रह जाये । मीमांसा सिद्धान्त-मीमांसा दर्शन में 'आत्मा' शरीर, इन्द्रिय आदि से भिन्न और 'नित्य' है । 'यजमानः स्वर्गं याति' इस तरह के श्रुतिवाक्यों में 'यजमान' शब्द से उसका 'शरीर' ग्रहण नहीं किया जाता, वरन् उसका 'जीवात्मा' ही ग्रहण किया जाता है । शरीर के नष्ट हो जाने पर, उसके द्वारा किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का संचय आत्मा में हो जाता है । कर्मों के इसी संग्रह से, दूसरे जन्म में आत्मा 'सशरीरी' बनता है और पूर्व में किए गए कर्मों का फल भोगता है । यह आत्मा 'नित्य' होने के कारण, जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त माना गया | किन्तु उसे 'कर्ता' 'भोक्ता' भी माना गया है । 'अहं' अनुभूति के द्वारा उसे प्रत्यक्ष से जाना जा सकता है । वह विभु है, ज्ञाता है, और ज्ञेय भी है । यह दर्शन, प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् आत्माओं को मानता है और उनमें मौजूद 'चैतन्य' को यह 'औपाधिक' गुण मानता है । जब यह मुक्त / सुषुप्त अवस्था में होता है, तब ये औपाधिक गुण उसमें नहीं रहते । इसलिए, आत्मा जड़रूप हो जाता है । 'जड़' होने के कारण वह 'बोध्य' भी हो जाता है । यदि प्रत्येक शरीर में स्थित आत्माओं को एक मान लिया जाये, तो एक 'जीव' द्वारा किए गये कर्मों का फल, दूसरे जीवों को भी भोगना पड़े । चूंकि 'कर्म' और 'कर्मफल' की विवेचना, मीमांसकों का मुख्य प्रतिपाद्य है । इसी की व्यवस्था के लिए, प्रत्येक शरीर में आत्मा की भिन्नता स्वीकार की गई है । प्रभाकर के मत में भी आत्मा जड़ स्वभाव वाला है । किन्तु उसका 'ज्ञान' 'स्वप्रकाशक' है। प्रभाकर की यह विवेचना, भट्ट की अपेक्षा श्रेष्ठ और बुद्धियुक्त जान पड़ती है । मीमांसकों ने, नैयायिकों की ही तरह, आत्मा का 'बहुत्व', और मुक्त अवस्था में भी उसे 'स्वतन्त्र' तथा 'एक दूसरे से भिन्न' माना है । सांख्य-सिद्धान्त—सांख्यदर्शन में एक चेतन तत्त्व 'पुरुष' और दूसरा अचेतन तत्त्व 'प्रकृति' है । अनादिकाल से अविद्या के संसर्ग से प्रकृति-पुरुष दोनों का परस्पर सम्बन्ध है । इससे पुरुष का प्रतिविम्ब प्रकृति में निरन्तर पड़ता रहता है | चेतन के इस प्रतिबिम्ब सम्पर्क से, प्रकृति में चेतन जैसी भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | १६ www.jain

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