Book Title: Bharatiya Darshano me Atmatattva Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 5
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) H iiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERREARRIERREREममाम्म्म्म्म नहीं हो पायेगा। इस तरह, यह एक ऐसी शाश्वत/अविच्छिन्न प्रक्रिया है, जिसमें नाम, रूप आदि कुछ भी तो स्थायी नहीं है। विद्वानों की इसी तरह की टीका/टिप्पणियों के परिप्रेक्ष्य में, बौद्धों का आत्मा-विषयक अभिप्राय यह स्पष्ट होता है-'आत्मा, न तो वह है, जो पञ्चस्कन्ध का स्वरूप है; न ही उस स्कन्ध रूप से सर्वथा भिन्न है। यह आत्मा, न तो केवल शरीर-मन का सम्मिश्रण मात्र है, न ही कोई इस तरह का नित्य पदार्थ है, जो कि परिवर्तनों के विप्लव से सर्वथा मुक्त रह सके । वैदिक वाङमय में आत्म-चर्चा दुःख-निवृत्ति का प्रमुख कारण आत्म-साक्षात्कार है, यह मानकर, वैदिक कालीन जीवात्मा, जब आत्मान्वेषण में प्रवृत्त हुआ, तो उसने देखा कि देवोपासना/स्तुति आदि से भी दुःख-निवृत्ति हो जाती है । इसलिए वह इन्द्र, वरुण, आदि देवों को ही 'आत्मा' के रूप में मान बैठा । यह तथ्य, वेद संहिताओं के अवलोकन से स्पष्ट होता है। किन्तु जिसने, जब-जब भी जिस किसी देवता की स्तुति की, तब-तब उपास्य स्तुत्य देव को ही उसने ‘महानतम' माना। पर, सभी देव तो 'महानतम' हो नहीं सकते-यह विवेक जागृत होने पर, उनके मनों में एक जिज्ञासा जागी-'सबसे महान् कौन है ?' इस के समाधान में यह माना गया कि जो देव, सबसे महान हो, वस्तुतः वही आत्मा है। इसी तरह की भावनाओं के रूप में, आत्म-साक्षात्कार की जिज्ञासा की क्रमिक प्रगति वेदों में देखी जा सकती है। यह बात अलग है कि उपनिषदों में, आत्मा को देवताओं से पृथक् रूप में स्वीकार कर लिया गया। केनोपनिषद् कहती है"-"जिस आत्मा के अन्वेषण में लोग लगे हुए हैं, वह देवताओं से भिन्न है। क्योंकि, देवताओं में जो देवत्व शवित है, वह ब्रह्मप्रदत्त है । इसलिए, आत्मा, देवताओं से भिन्न है-यह तथ्य यक्ष-देव सम्वाद में स्पष्ट हुआ है ।' ब्राह्मणों/आरण्यको में आ1- ब्राहण ग्रन्थों में पहले तो मित्र, बृहस्पति, वायु, यज्ञ आदि को 'ब्रह्म' रूप में माना गया। बाद में, इन सब देवताओं की उत्पत्ति ब्रह्म से बतलाकर, ब्रह्म तत्त्व का व्यापक रूप प्रदर्शित किया गया। यहाँ 'आत्मा' और 'ब्रह्म' दोनों को ही अलग-अलग कहा गया है। ब्रह्म, देवताओं का उत्पादक होने पर भी उनसे अभिन्न माना गया। और, आत्मा को देवताओं से भिन्न स्वीकार किया गया। यानी, ब्राह्मणों/आरण्यकों में, देवताओं की उत्पत्ति के कारणस्वरूप ब्रह्म से 'आत्मा' का स्वरूप पृथक् स्वीकार किया गया। ___शतपथ ब्राह्मण में 'शरीर का मध्यम भाग आत्मा है'13 कहने के साथ-साथ त्वचा, शोणित, मांस और अस्थियों के लिए, फिर बाद में मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त के लिए भी 'आत्मा' शब्द का प्रयोग किया गया। यहीं पर. जाग्रत. स्वप्न. सषप्ति. तरीय अवस्थाओं के लिए भी 'आत्मा' शब्द का प्रयोग है। जबकि जैमिनीय ब्राह्मण में आकाश से अभिन्न मानकर आत्मा की पृथक् सत्ता दिखलाई गई है। 9. महावग्ग-1/6/38 12. शतपथ ब्राह्मण-913/2/4 15. जैमिनीय ब्राह्मण-2/54 10. पुग्गलपत्ति 13. वही--9/3/2/4 11. केनोपनिषद् -1/5/9 14. शतपथ ब्राह्मण-7/1/1/18 भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | ५ www.larGROPage Navigation
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