Book Title: Bharatiya Darshano me Atmatattva
Author(s): M P Patairiya
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 6
________________ साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ तत्तिरीय आरण्यक में आत्मा को प्राणों से अभिन्न मानते हुए उसे 'विज्ञानमय' 'आनन्दमय' स्वीकार किया गया है । और अन्त में उसका स्वरूप परिचय दिया गया है । ऐतरेय ब्राह्मण में द्यौ और पृथिवी के मध्यवर्ती आकाश से अभित्र 'आत्मा' कहा गया है 1" । जब कि ऐतरेय आरण्यक में 'आत्मा' से ही लोक की सृष्टि कही गई है, और उसके सोपाधि-निरुपाधि स्वरूपों का वर्णन करके, चित्पुरुष ब्रह्म से उसकी एकता स्वीकार की गई है । दूसरे स्थल पर, स्पष्ट कहा गया है - शुद्ध चैतन्य से भिन्न, अन्य कोई पदार्थ, संसार में नहीं है । देवता, जंगम और स्थावर जीव, जो कुछ भी इस संसार में विद्यमान हैं, वह सब आत्मा ही है । इसी से सबकी सृष्टि होती है, और सबका लय भी इसी में होता है" । इस तरह, आत्मा के स्थूलतम, परिच्छिन्न स्वरूप से लेकर सूक्ष्मतम, सर्वव्यापक स्वरूप तक का वर्णन आरण्यकों में पाया जाता है । उपनिषत्साहित्य में आत्म-विचारणा उपनिषदों का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'आत्मा' है । वेद संहिताओं से लेकर आरण्यकों तक जिस 'ब्रह्म' को आत्मा से भिन्न प्रतिपादित किया गया था, वही ब्रह्म, उपनिषत्साहित्य में आत्मा से अभिन्न मान लिया गया। इसके साथ-साथ, यह भी स्वीकार किया गया कि 'आत्मा' के अलावा, अन्य कोई भी दूसरा पदार्थ, संसार में 'सत्' नहीं है । बृहदारण्यकोपनिषद् का, आत्मा के सम्बन्ध में यह कथन द्रष्टव्य है- 'स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमयः पृथिवीमयः आपोमयः "धर्ममयो अधर्ममयः सर्वमयः" इत्यादि । यही आत्मा ब्रह्म, प्राण अपान - व्यान उदान वायु के रूप में, हमारे शरीर की रक्षा करता है; यही आत्मा, भूख, प्यास, शोक, मोह, बुढ़ापा, मृत्यु आदि से हम सबका उद्धार करता है । इसी के ज्ञान / साक्षात्कार से, पुत्र, धन, स्वर्ग आदि की अभिलाषा से मुक्त हुआ जीव संन्यस्त हो जाता है | चूँकि, यह आत्मा अखण्ड है, पूर्ण है; इसलिए, सत्-असत्, दीर्घ- लघु, दूर- समीप, आदि परस्पर विरोधी धर्मों का वह आधार होता है । इसी वजह से, अलग-अलग दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से, उसका वर्णन अनेक तरह से किया है । बृहदारण्यकोपनिषद् के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है, कि 'ब्रह्म' सम्बन्धी ज्ञान, पहले-पहल, क्षत्रियों में ही था । उन्हीं से ब्राह्मणों ने इस विद्या को प्राप्त किया । इसमें, यह भी स्पष्ट कहा गया है कि अपनी तपस्या के बल पर कोई भी ब्रह्म को जान/ प्राप्त कर सकता है । क्योंकि, यह आत्मा न तो वेदों के अध्ययन से जाना / पाया जा सकता है, न ही बुद्धि / शास्त्रों से उसे प्राप्त किया जा सकता है । बल्कि, जो जीवात्मा, अपने आत्मा का वरण करता है, वही जीवात्मा, अपने आत्मा को प्राप्त करता है । 33 यही बात कठोपनिषद् में भी यों कही गई है : 21 नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्येष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ 17. ऐतरेय ब्राह्मण - 1/3/3 20. बृहदारण्यकोपनिषद् - 2/5/19 23. वही - 4/4/19 16. तैत्तिरीयारण्यक - 9 / 1 19. वही—2/6/1 22. वही - 4/5/6 ६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य 18. ऐतरेय आरण्यक - 2/4/1/3 21. वही - 4/4/5 24. कठोपनिषद् - 1/2/23

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