Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ पुरोवाक् युगों से मानव-मस्तिष्क इस प्रश्न का समाधान खोजता रहा है कि उसके जीवन का परम श्रेय क्या है ? मानवीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में जो-जो उत्तर सुझाए, उन्हींसेसमग्र पूर्व एवं पश्चिम के आचार-दर्शनों का निर्माण हुआ है। आचार के सम्बन्ध में इन विभिन्न दृष्टिकोणों की उपस्थिति ने चिन्तनशील मानव-मस्तिष्क के सामने एक नई समस्या प्रस्तुत की कि आचार सम्बन्धी इन विभिन्न विचार-परम्पराओं में सत्य के अधिक निकट कौन है? फलस्वरूप, उन सबका सुव्यवस्थित रूप से तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन आवश्यक हुआ। भारत में तुलनात्मक अध्ययन की स्थिति पाश्चात्य नैतिक-विचारणाओं के सन्दर्भ में ऐसा प्रयास बहुत पहले से होता रहा है और वर्तमान युग तक वह काफी व्यवस्थित और विकसित हो गया है, लेकिन जहाँ तक भारतीय नैतिक विचार-परम्परा का प्रश्न है, यह पारस्परिक तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन गहराई से नहीं हो पाया है। यह तो हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि साम्प्रदायिक-व्यामोह के कारण हमने विभिन्न साम्प्रदायिक नैतिक-मान्यताओं के मध्य रही हुई एकरूपता को प्रकट करने का कभी प्रयास ही नहीं किया। संगीत सब वही गा रहे थे, फिर भी अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग था, जो सब मिलकर इतना बेसुरा हो गया था कि सामान्य एवं विद्वत्-जन संगीत के उस सम-स्वर की मधुरता का रसास्वादन नहीं कर सके। कृष्ण, बुद्ध और महावीर आदि महापुरुषों एवं भारतीय ऋषिमहर्षियों के नैतिक उपदेशों की वह पवित्र धरोहर, जिसे उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभाएवं सतत साधना के अनुभवों से प्राप्त किया था, जो मानव जाति के लिए चिर-सौख्य एवं शाश्वत शांति का संदेश लेकर अवतरित हुई थी, मानव उसका सही मूल्यांकन नहीं कर सका। मानवने यद्यपि उनके इस महान् वरदान को धर्मवाणी या भगवद्वाणी के रूप में श्रद्धा से देखा, उसकी पूजा-प्रतिष्ठा की, उसे सुनहरे वस्त्रों से आबद्ध कर भव्य मन्दिरों और मठों में सुरक्षित रखा। कुछ ने श्रद्धावश उसका नित्यपाठ किया, लेकिन हरिभद्रसूरी और गांधी जैसे बिरले हीथे, जिन्होंने उसके समस्वरों को सुना, उसके मर्म तक पहुँचने की कोशिश की और उसकी एकरूपता का दर्शन कर, उसे जीवन में उतारा। सद्भाग्य से, पाश्चात्य विचार-परम्परा की जिज्ञासु वृत्ति के कारण वर्तमान युग में असाम्प्रदायिक आधारों पर भारतीय धर्मों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। यह प्रयास भारतीय एवं पाश्चात्य- दोनों प्रकार के विद्वानों द्वारा किया गया। जिन पाश्चात्य विचारकों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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