Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ -10 वरन् समग्र रूप में हिन्दूधर्म का प्रतिनिधित्व करती है," अत: तुलनात्मक दृष्टि से गीता का ही उपयोग अधिक किया गया है, फिर भी गीता के संक्षिप्त ग्रन्थ होने के कारण तुलनात्मक साम्यता को स्पष्ट करने के लिए यथावसर उपनिषदों, स्मृतिग्रन्थों तथा महाभारत का भी उपयोग किया है। बौद्धाचार-परम्परा ने जिस मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था, वह उचित समाधान तो था, लेकिन व्यावहारिक जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्ति के मध्य उस समतौल को बनाए रखना सहज नहीं था। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद वह समतौल विचलित हो गया। एक पक्ष का झुकाव निवृत्ति की ओर अधिक हआ और वह हीनयान (छोटा वाहन) कहलाया है, क्योंकि निवृत्यात्मक साधना में अधिक लोगों को लगा पाना सम्भव नहीं था। दूसरी ओर, जो पक्ष प्रवृत्ति की ओर झुका एवं जिसने जन-कल्याणके मार्ग को अपनाया, वह महायान (बड़ा वाहन) कहलाया है, क्योंकि निवृत्यात्मक साधना में अधिक लोगों को लगा पाना सम्भव नहीं था। एक बार इस समतौल का विचलन होने के बाद बौद्ध-परम्परा विभिन्न अवान्तर सम्प्रदायों (निकायों) में विभाजित होती चली गई। प्रस्तुत तुलनात्मक विवेचन में बौद्ध-दर्शन को उस विस्तृत समग्र रूप में समेट पाना असम्भव था। दूसरे, उन निकायों की पारस्परिक दूरी इतनी अधिक है कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से वे अधिक उपयोगी नहीं रह जाती; अत: प्रस्तुत ग्रन्थ में बौद्ध-दर्शन से तात्पर्य प्रारम्भिक बौद्ध-दर्शन से ही है। प्राचीन पाली त्रिपिटक साहित्य ही हमारी इस विवेचना का मूल आधार रहा है, यद्यपि हमने यथावसर विसुद्धिमग, लंकावतारसूत्र, बोधिचर्यावतार आदि परवर्ती ग्रन्थों का भी उपयोग किया है। ग्रन्थ परिचय लगभग 1100 पृष्ठों का यह बृहदकाय शोध-ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में आचारदर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष का और दूसरे भाग में आचार के व्यावहारिक पक्ष का विवेचन किया गया है। सैद्धान्तिक विवेचन के प्रथम भाग में तीन खण्ड हैं - 1. नैतिक सिद्धान्त-खण्ड। 2. दार्शनिक सिद्धान्त-खण्ड। 3. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त-खण्ड। व्यावहारिक विवेचना के दूसरे भाग में भी तीन खण्ड हैं1. साधनामार्ग-खण्ड। 2. सामाजिक नैतिकता-खण्ड। 1. भगवद्गीता (राधाकृष्णन्), पृ. 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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