Book Title: Bhagwan Mahavir Dwara Mahanadiyo Ka Santaran
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 4
________________ उक्त गाथा एवं टीका का भावार्थ है कि भगवान् महावीर वैशाली से वाणिज्य ग्राम जा रहे थे। बीच में गण्डकी नदी को पार करने के लिए नौका पर बैठे। नाविकों ने नौका पार करने का मूल्य न मिलने पर भगवान् को पकड़ लिया। किन्तु, चित्र नाम राजकुमार ने भगवान् को छुड़ाया। ___ उपर्युक्त प्राचीन कथन पर से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने गंगा और गण्डकी जैसी महानदियाँ नौकाओं से पार की है। बिहार प्रान्त में आज भी गण्डकी और गंगा जल प्रवाह के विस्तार की दृष्टि से महान् ऐतिहासिक नदियाँ हैं। स्वयं लेखक ने भी बिहार प्रदेश की अपनी विहार-यात्रा में दोनों नदियों को पार किया है और देखा है-इनका विशाल जल-प्रवाह। अस्तु, आवश्यक नियुक्ति जैसे प्राचीनतम महान् ग्रन्थ में निर्दिष्ट वर्णन से कौन विचारशील व्यक्ति इन्कार कर सकता है कि श्रमण भगवान् महावीर ने गंगा और गंडकी जैसी नदियाँ पार नहीं की? और, भी अनेक नदियों को अनेक वार पार किया होगा, किन्तु उक्त दो प्रसंग तो उपसर्गों की घटनाओं से सम्बन्धित थे, इसलिए उल्लेख में आ गए। अन्य नदी संतरण साधारण होने से अर्थात् उपसर्ग रहित होने से उल्लिखित नहीं किए गए। भगवान् महावीर के प्राकृत भाषा में पद्य-बद्ध चरित्र के लेखक महान आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1141 में 'महावीर चरियं' लिखा है। आचार्यश्री ने अपने ग्रन्थ में लिखा है "संपत्थिओ य भयवं सुरहिपुरं तत्थ अन्तरे गङ्गा। तो सिद्धदत्त नावं आरूढो लोगमज्झम्मिं ।।96।। उक्त संदर्भ का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य श्री ने सुरभिपुर के पास गंगा नदी को नौका द्वारा पार करने का उल्लेख किया है और वहाँ लिखा है -"संचलिया नावा पत्ता अगाहजले।" और आवश्यक नियुक्ति के अनुरूप उपसर्ग और उपसर्ग निवारण की विस्तृत चर्चा की है। आचार्य गुणचन्द्रसूरि ने प्राकृत गद्य में प्रमुख रूप से भगवान् महावीर का विस्तृत जीवन लिखा है। उक्त 'महावीर चरियं' में भी गंगा महानदी को नौका द्वारा भगवान् महावीर ने पार किया, यह स्पष्ट उल्लेख है ___ "सुरभिपुरं अइक्कमिऊण संपत्तो जलहिपवाहाणुकारिवारिपसरं सयलसरियापवरं गंगामहानइं।" महावीर चरियं गुणचन्द्रसूरि, प्रस्ताव, 5 भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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