Book Title: Bhadrabahu Sambandhi Kathanako ka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 11
________________ ११ ज्ञातव्य है कि रइधू ने अपने भद्रबाहुचरित्र में कम्बल धारक अर्ध नग्न मुनियों से श्वेताम्बर परम्परा का उद्भव दिखाया, वह तो ठीक है किन्तु उन्होंने श्वेताम्बरों से यापनीयों की उत्पत्ति दिखाई, वह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों का विकास उत्तर भारत की स्थविरकल्पी मुनियों की परम्परा से हुआ है, जो नग्न रहते हुए भी कम्बल, पात्र एवं मुखवस्त्रिका रखते थे। लगभग १५वीं शती में रइधू ने और सोलहवीं शती में रत्ननंदी ने जो भद्रबाहु चरित्र रचे उनमें पूर्व की अनुश्रुतियों में स्वैर कल्पना से भी नई-नई बातें जोड़ दी हैं। जैसे- मुनियों द्वारा रात्रि में भिक्षा लाकर दिन में खाना, भिखारियों द्वारा मुनि का पेट चीरकर उसमें से अन्न निकालकर खा जाना, रात्रि में भिक्षार्थ आये नग्न मुनि को देखकर स्त्री का गर्भपात हो जाना, स्थूलवृद्ध के शिष्यों द्वारा उनकी हत्या करना, उनका व्यन्तर के रूप में जन्म होना और अपने उन दुष्ट शिष्यों को कष्ट देना, शिष्यों द्वारा उनकी हड्डी या काष्ट पट्टिका पर अंकित चरण की पूजा करना आदि।३५ ज्ञातव्य है कि भावसेन ने श्वेताम्बरों में प्रचलित शान्ति पाठ और शान्ति-स्नात्र को देखकर शान्त्याचार्य की कथा गढ़ी, तो रइधू एवं रत्ननंदी ने श्वेताम्बरों में स्थापनाचार्य की परम्परा को देखकर स्थूलाचार्य की यह कथा गढ़ी है। ज्ञातव्य है कि स्थापनाचार्य के रूप पाँच कोडिया या काष्ट पट्टिका रखने की परम्परा श्वेताम्बरों में है। स्थापनाचार्य का उल्लेख तो भगवतीआराधना में भी मिलता है। भद्रबाहु के जीवनवृत्त में विप्रतिपत्तियाँ इन कथानकों की स्वैर कल्पनाओं के जोड़ने से न केवल ऐतिहासिक प्रामाणिकता खण्डित हुई अपितु इनकी पारस्परिक विसंगतियाँ भी बढ़ती गईं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर आचार्य हस्तीमल३६ जी एवं डॉ० राजाराम जी के मन्तव्यों के आधार पर कुछ विसंगतियों को प्रस्तुत कर रहा हूँ(१) द्वादशवर्षीय दुष्काल कहाँ पड़ा इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। हरिषेण, देवसेन, एवं रत्ननन्दी ने उज्जयिनी में बताया तो रइधू ने उसे मगध में कहा और भावसेन ने उसे सिन्धु-सौवीर देश में बताया। (२) भद्रबाहु दक्षिणापथ गये अथवा नहीं इस सम्बन्ध में भी मतैक्य नहीं है। हरिषेण, देवसेन आदि ने उन्हें अवन्ती प्रदेश में रहने का उल्लेख किया तो रइधू ने उन्हें पाटलिपुत्र से दक्षिण जाने का संकेत किया। (३) हरिषेण ने चन्द्रगुप्त मुनि को ही विशाखाचार्य बताया है जबकि देवसेन और रत्ननंदी ने चन्द्रगुप्त मुनि और विशाखाचार्य को अलग-अलग माना है। • (४) श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति के प्रसंग में जहाँ देवसेन ने शान्त्याचार्य के शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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