Book Title: Bhadrabahu Sambandhi Kathanako ka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 14
________________ १४ ___ आचार्य हस्तीमलजी ने जैन धर्म के मौलिक इतिहास, भाग २, पृष्ठ ३५७ पर इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि परवर्तीकाल में रचित दिगम्बर परम्परा के इन भद्रबाह चरित्रों में किस प्रकार स्वैर कल्पनाओं द्वारा दूसरे सम्प्रदायों को नीचा दिखाने के लिये घटनाक्रम जोड़े जाते रहे। उनके अनुसार दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि विभिन्न कालों में भद्रबाहु नाम के पाँच आचार्य हुए हैं। उन्होंने कालक्रम के अनुसार इनका विवरण इस प्रकार दिया है। १. श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर निर्वाण सं० १६२ अर्थात् ई०पू० तीसरी शती)। २. २९वें पट्टधर भद्रबाहु (वीर निर्वाण सं० ४९२-५१५ अर्थात् ईसा की प्रथम शती)। ३. नन्दिसंघ बलात्कारगण की पट्टावली में उल्लेखित भद्रबाह (वीर निर्वाण सं० ६०९-६३१ अर्थात् ईसा की दूसरी शती)। ४. निमितज्ञ भद्रबाह (ईसा की तीसरी शती, वीर निर्वाण आठवीं-नौवीं शती)। ५. प्रथम अंगधारी भद्रबाहु (वीर निर्वाण संवत् १००० के पश्चात्)। यहाँ इन पाँच भद्रबाहु नामक आचार्यों की संगति श्वेताम्बर परम्परा से कैसे सम्भव है- यह विचार करना अपेक्षित है(१) अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु जिनका स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० १६२ में हुआ ये १४ पूर्व व १२ अंगों के ज्ञाता थे। श्वेताम्बर परम्परानुसार ये सातवें और दिगम्बर परम्परानुसार ये आठवें पट्टधर थे। ये सचेल-अचेल दोनों परम्परा को मान्य रहे हैं। इनके समय में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग या स्थविरकल्प और जिनकल्प की व्यवस्थायें पृथक्-पृथक् हुईं। ये छेद सूत्रों के कर्ता हैं। छेद सूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्गों तथा जिनकल्प और स्थविरकल्प की चर्चा है। इससे फलित होता है कि उनके काल में वस्त्र-पात्र व्यवस्था का प्रचलन था। पुनः यदि भद्रबाहु (प्रथम) को उत्तराध्ययन का संकलनकर्ता माना जाये तो उसमें भी छेदसूत्रों के तथा सचेल-अचेल परम्पराओं के उल्लेख हैं। पुनः विद्वानों ने पूर्वो को पापित्य परम्परा से सम्बद्ध माना है। चूंकि छेदसूत्रों का आधार पूर्व थे और पूर्व पार्थापत्य परम्परा के आचार मार्ग का प्रतिपादन करते थे, अत: छेदसूत्रों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख पार्श्वपत्यों से सम्बन्धित थे, जो आगे चलकर महावीर की परम्परा में मान्य हो गये। इनका काल ई.पू. तीसरी शती है। २९३ पट्टधर आचार्य भद्रबाहु (अपरनाम- यशोबाहु) जो आठ अंगों के ज्ञाता थे, इनका काल वीर निर्वाण सं०.४९२ से ५१५ (ई०पू० प्रथम शती) माना गया है। आचार्य हस्तिमलजी के इस उल्लेख का आधार सम्भवत: कोई दिगम्बर पट्टावली होगी। हरिवंशपुराण में यशोबाहु को महावीर का २७वाँ पट्टधर बताया गया है। इस काल में कोई भद्रबाहु या यशोबाहु नामक आचार्य हुए हैं, इसकी पुष्टि श्वेताम्बर स्रोतों से नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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