Book Title: Bauddha Dharm me Samajik Chetna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 3
________________ १४८ बुद्ध के पश्चात् संघ ही रहा है। संघ की दूसरे शब्दों में समाज की सर्वोपरिता को बौद्धधर्म ने सदैव ही स्वीकार किया है। त्रिशरणों में 'संघशरण' का विधान इस बात का प्रमाण है कि बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना को सदैव ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। राग का प्रहाण और सामाजिक चेतना बौद्धधर्म राग के प्रहाण पर बल देता है और इसीलिए वह श्रामण्य (संन्यास) और निर्वाण की बात कहता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि राग का प्रहाण ही ऐसा तत्त्व है, जो व्यक्ति की सामाजिक चेतना को अवरुद्ध करता है, किन्तु यह मान्यता प्रान्त ही है। राग या ममत्व से ऊपर उठने का अर्थ सामाजिकता की चेतना से विलग होना नहीं है। यह सत्य है कि राग के प्रहाण के लिये व्यक्ति श्रामण्य को स्वीकार करता है और अपने पारिवारिक सम्बन्धों को भी तोड़ लेता है किन्तु यह पारिवारिक जीवन से विरक्त होना सामाजिक जीवन से विमुख होना नहीं है, अपितु यह हमारी सामाजिक चेतना और सामाजिक सम्बन्धों को व्यापक बनाने का ही एक प्रयत्न है। वास्तविकता तो यह है कि रागात्मकता की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध बन ही नहीं पाते। राग हमें व्यापक बनाने की अपेक्षा सीमित ही करता है। वह अपने और पराये का घेरा खड़ा करता है। यदि हम ईमानदारीपूर्वक विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सामाजिक जीवन और सामाजिक सम्बन्धों की विषमता के मूल में कहीं न कहीं व्यक्ति की रागात्मकता ही कार्य करती है। मैं और मेरा ऐसे प्रत्यय हैं जो हमें चाहे कुछ लोगों के साथ जोड़ते हों, लेकिन वे हमें बहुजन समाज से तो अलग ही करते हैं। ममत्व की उपस्थिति हमारी सामाजिक चेतना की संकीर्णता की ही सूचक है। रागभावना जोड़ने का काम कम और तोड़ने का काम अधिक करती है। ममत्व की उपस्थिति में समत्व सम्भव नहीं है और समता के अभाव में सामाजिकता नहीं होती है। सामान्यतया राग-द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग और द्वेष के आधार पर बनते हैं तो वे विषमता और संघर्ष को जन्म देते हैं। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं - उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि च । सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रहेण ।। आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते । यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं न शक्यते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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